________________
१९२
अनेकान्त
[वर्ष ११
मवे पशुओंको बेचनेका व्यवसाय ही करते है, बाजारोमें अजीर्ण से बचे रहते है।' मांस और शराबकी दुकानें भी नही रखते।""
ऋषिकूल जीवन भी अहिंसामयी रहा।
महाभारत, रामायण, रघुवंश, शकुन्तला, कादम्बरी, इसीप्रकार चीनी यात्री हुएन्त्साग ने जो ईस्वी सन्
आदि साहित्यिक ग्रथोंमे बाल्मीकि, अगस्त्य, भृगु, कण्व, ६२९-६४५ में भारतमें आया था, लिखा है कि "भारतीय जावालि आदि माननीय ऋषि-मुनियोंके आश्रमोंका जो लोग स्वाभाविक रूपसे पवित्र रहते है, वे भोजनके पूर्व वर्णन दिया हुआ है, उससे भली भाति विदित है कि ब्राह्मण स्नान करते है । वे उच्छिष्ट भोजन न खुद खाते है और न ऋषियोके आश्रमोका वातावरण दया, सरलता और दूसरोको खिलाते है। भोजनके पात्र बिना साफ किये स्वच्छतासे कितना सुन्दर था, विनय, भक्ति और सेवासे दूसरों को नही दिये जाते । मिट्टी और लकडीके पात्र एक कैसा सजीव था, उनका लोक मानव-लोक तक ही सीमित बार ही प्रयोगमें आते है। सोने, चादी ताबे आदिके पात्र न था, वह पश-पक्षी लोक तथा वनस्पति लोक तक व्याप्त प्रयोगके बादमें शुद्ध किये जाते है। भारतीयोका भोजन
था। वह आकाशमे धरती तक और पूर्व क्षितिजसे पश्चिम साधारणतया गेह, चावल, ज्वार, बाजरा, दूध, घी, गुड क्षितिज तक फैला हुआ था। ऋतु-चक्रका नृत्य, उषाऔर शक्कर है।
की अरुण मुस्कान, सूर्यकी तेजस्वी चर्या, सध्याकी शान्त
निस्तब्धता, तारों भरे उत्तग गगनके गीत, उनके आमोदइसी प्रकार चीनी यात्री इत्सिग, जो हर्षवर्धनके कालमे
प्रमोदके साधन थे। सब ओर लतावेष्टित रूखोकी पक्ति, ईस्वी सन् ६९१-६९२के लगभग भारतमे आया था, लिखता फलोकी वाटिकाए, अलियोका गुजार, पक्षियोके नाद, है कि-"यहापर भारतमे सारा भोजन--क्या खाने के लिये __मोरोके नाच, मृगोकी अठखेलियाँ, कमलोंसे भरपूर जलाशय,
और क्या चबाने के लिये बड़ी उत्तमतासे नानाविधियोसे तैयार उनकी नाटकशालाके सजीव दृश्य थे; खानेके लिये प्राकृतिक किया जाता है; उत्तर भारतमे गेहू का आदर बहुत होता है; फल फूल, पीने के लिये स्वच्छ नदी जल, पहिननेके लिये पश्चिमी प्रदेशमे सबसे अधिक सेका हुआ आटा-अर्थात् बल्कल, रहने के लिये तृणकुटी, उनकी धनसम्पदा थी। चावल या जौका सत्तू वर्ता जाता है, मगधमे गेहूका आटा स्मति-ग्रन्थोंके विधान भी अहिंसामयी हैं बहुत कम परन्तु चावल बहुतायतसे होता है, दक्षिणी सीमान्त
स्मृति-प्रथोमे भी आहार और व्यवसाय-सम्बन्धी प्रदेश और पूर्वी उपान्त्य भूमिकी उपज वही है जो कि
अहिसापर बहुत जोर दिया गया है । मनुस्मृति ११-५४-९६
अद्विसापर बहत जोर दिया । मगधकी है। घी, तेल, दूध, और मलाई सब कही मिलती है। मे कहा गया है कि माम, मद्य, सुरा, और आसव मीठी रोटिया अर्थात् गुड़की भेलिया और फलोकी इतनी
ग्रहण न करना चाहिए। कीडे, मकोड़े पक्षियोंकी हत्या करना प्रचुरता है कि उनका यहा गिनना कठिन है। सामान्य
अथवा मधुमिश्रित भोजन, निन्दित अन्नका भोजन, लहसुन, लोग तक मद और मास बहुत कम खाते है । भारतके पाचो
प्याज आदि अभक्ष्य चीजोका सेवन करना भी पाप है। भागों मे अर्थात् उत्तरीय भारत मे लोग किसी प्रकारका
खानोपर अधिकार जमा, उनको खोदना, बडे भारी यत्रों
खानोपर अधिकार जमा. प्याज अथवा कच्ची तरकारिया नही ग्वाते है. अतएव वे
का चलाना, औषधियोका उखाडना, ईंधनके लिये हरे
वृक्षोका काटना भी पाप है। याज्ञवल्क्य-स्मृति १-१५६, १. Buddhism Records---Introducted बृहन्नारदीय पुराण २२,१२,१६ में पशुबलि और मासाहारpp. 37-38.
को लोकविरुद्ध होनेसे त्याज्य ठहराया है।
१. इत्सिंगकी भारतयात्रा, अनुवादक ला. सन्तराम २. बाटलं ओन युवन ज्वांग, जिल्ब १ पृ. १५२ बी. ए. १९२५ १० ६६,६७