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कविवर द्यानतराय
( पं० परमानन्द जैन शास्त्री)
जीवन-परिचय-
कविवर द्यानतरायजी आगराके निवासी थे । यह अग्रवाल कुलमे उत्पन्न हुए थे और उनका गोत्र गोयल था । कविवर के पूर्वजोंने लालपुरसे आकर आगरामें निवास किया था । कविके पितामह ( दादा ) का नाम वीरदास था और पिताका नाम श्यामदास । सवत् १७३३ में कविवरका जन्म आगरामे हुआ था। इनका लालन-पालन बडे प्रेमसे किया गया और प्रारम्भिक शिक्षा भी इन्हें मिली। उन समय इनकी जैनधर्म मे कोई रुचि नही थी और न उसका परिज्ञान ही इन्हें था । उस समय केवल अपने पिता द्वारा मानित धर्मका आचरण मात्र करते थे ।
देवयोग कविवरके पिनाका सं० १७४२ में अचानक स्वर्गवास हो गया। उस समय उनकी अवस्था नौ वर्षकी थी । पिताके स्वर्गरथ हो जानेगे उन्हें जो शोक हुआ, उसका प्रभाव भी उनके जीवनपर पड़ा, घर गृहस्थीका सब कार्य उन्हे भार स्वरूप प्रतीत होने लगा, परन्तु फिर भी आत्मीयजनों और दूसरे धर्मात्मा सज्जनोंके सहयोगसे कुछ समय अपना कार्य करते हुए भी शिक्षाकी ओर अग्रसर होते रहे ।
भाग्योदयमे तेरह वर्षकी उम्रमे इनका परिचय प० विहारीलाल और शाह मार्नासहजी हो गया। ये दोनों ही जैनधर्मके अच्छे जानकार थे और शक्त्यनुसार उसपर अमल भी करते थे । उम ममय आगगमे यत्र तत्र जैनधर्मकी खूब चर्चा थी, वहा विद्वानोंका समागम और तत्वचर्चाका वह केन्द्र-सा बना हुआ था। इनमे पहले भी वहा अध्यात्मशैली अपना कार्य कर रही थी, उसके बाद इनकी शैली भी प्रसिद्धिको प्राप्त हो गई। फलत वहा उस समय यदि कोई हाकिम या मद् गृहस्थ पहुच जाता था तो वह उन विद्वानोंकी तत्वचर्चा और सत्संगति से यथेष्ट लाभ उठानेका जरूर प्रयत्न करता था । अध्यात्मरसकी चर्चा उस नवागन्तुक व्यक्तिपर अपना प्रभाव अछूता नही छोडती थी, और परिणामस्वरूप उसकी आस्थामें जो कुछ कचावट अथवा शैथिल्यका अर्थ होता वह दूर होकर उसमें दृढ़ता आ जाती थी । और वह जैनधर्मका सच्चा हामी ही नहीं बनता था बल्कि अपने मानवजीवनको ऊंचा उठाने जैसी भावनाको
भी हृदयंगम कर लेता था । इस प्रकारकी अध्यात्मशैलिया उस समय कितने ही स्थानोपर अपना कार्य करती थीं । अस्तु, धानतरायजी उन दोनों सज्जनोंकी शिक्षा उपदेश एवं प्रयत्नसे अपने मानवजीवनको सफलताके रहस्यको पा गए। और संस्कृत-प्राकृत भाषाके साथ हिन्दी भाषाके भी अच्छे विद्वान बन गए। साथ ही जैनधर्मका परिज्ञान कर अपनेको उसकी शरणमे ले आए। कविवर पं० विहारीदास और शाह मानसिंहके इस उपकारको वे कभी नहीं भूले, प्रत्युत जबतक जीवित रहे उनका उपकार बराबर मानते रहे। फलत: उन्होने अपनी रचनाओमें भी उनका आदर एवं सम्मानके माथ उल्लेख किया है ।
सवत १७४८ मे १५ वर्षकी अवस्थामे द्यानतरायजीका विवाह हो गया और वे गृहस्थ जीवनकी गुल जकड़ दिये गए, जिसमें रागी होकर अनेक जीव अपने कर्तव्यको भूल जाते है । उस समय यौवनकी उन्मादकता जीवको पागल बना देती है और वह उसके रागरंगमे अपना सब कुछ भूल जाता है। जहा उनकी परिणति रागी होती थी वहा सत्संगका असर भी उनपर अपना काफी प्रभाव रखता था । इस समय उनकी अवस्था १९ वर्षकी हो चुकी थी । उस अवस्थामे जहा कामकी वासना भीषण ज्वाला रूपमें आत्मगुणोंको जलानेका प्रयत्न करती है वहां सत्समागम और अध्यात्म-शैलीने उनके विवेकको सदा जगरूक रहने के लिये बाध्य किया । यही कारण है कि वे उम समय भी अच्छी कविता करने लगे थे । फलतः सवत् १७५२ में कार्तिकवदी त्रयोदशीके दिन आपने आमरामे 'सुबोध पचासिका' नामकी कविता पूर्ण की।" सुगुरु विहारीदामने उसका उन्हें हितमे अर्थं बतलाया था और उन्होने उमे पद्यबद्ध किया था। यह रचना कितनी सुन्दर और अर्थवान है ( इतनी छोटी अवस्थामें इस प्रकारकी रचना करना आसान काम नही, )
१. "हिती अर्थ बताइयो, गुगुर बिहारीदास । सहसौ बावन वदी तेरस कार्तिकमास ॥५० ज्ञानवान जैनी सबै बसें आगरे मांहि ।
अन्तर ज्ञानी बहु मिले, मूरख कोऊ नाहि ॥ ५१ नर्मविलास