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बनेकान्त
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इसके तटों तथा घाटोंकी मरम्मत कराई जाय, बन्द रहने महावीरके इस अनेकान्त-शासन-रूप तीर्थमें यह खूबी तथा पर्से तक यथेष्ट व्यवहार में न मानेके कारण तीर्घजल खुद मौजूद है कि इससे भरपेट अथवा यषेष्ठ वेष रखनेवाला पर जो कुछ काई जम गई है अथवा उसमें कहीं-कहीं शैवाल मनुष्य भी यदि समदृष्टि (मध्यस्थवृत्ति) हुआ उपपत्ति-चक्षुसे उत्पन्न हो गया है उसे निकालकर दूर किया जाय और (मात्सर्यक त्यागपूर्वक युक्तिसंगत समाधानकी दृष्टिसे) सर्वसाधारणको इस तीर्षके महात्म्यका पूरा-पूरा परिचय इसका अवलोकन और परीक्षण करता है तो अवश्य ही उसका कराया जाय । ऐसा होनेपर अथवा इस रूपमें इस तीर्थका मान-श्रंग खण्डित हो जाता है-सर्वथा एकान्तरूप मिथ्याउद्धार किया जानेपर आप देखेंगे कि देश-देशान्तरके कितने मतका आग्रह छूट जाता है और वह अभद्र अथवा मिथ्याबेशुमार यात्रियोंकी इसपर भीड़ रहती है, कितने विद्वान् दृष्टि होता हुआ भी सब ओरसे भद्ररूप एवं सम्यग्दृष्टि बन इसपर मुग्ध होते हैं, कितने असख्य प्राणी इसका आश्रय जाता है। अथवा यू कहिये कि भ. महावीरके शासनपाकर और इसमें अवगाहन करके अपने दुःख-संतापोंसे तीर्थका उपासक और अनुयायी हो जाता है। इसी छुटकारा पाते है और ससारमें कैसी सुख-शान्तिकी लहर बातको स्वामी समन्तभद्रने अपने निम्न वाक्य द्वारा व्यक्त व्याप्त होती है। स्वामी समन्तभद्रने अपने समयमें, जिसे किया हैआज डेढ़ हजार वर्षसे भी ऊपर हो गये हैं, ऐसा ही किया है; और इसीसे कनड़ी भाषाके एक प्राचीन शिलालेख*
* कामं विपनप्युपपत्तिचः समीलता ते समदृष्टिरिष्टम् । में यह उल्लेख मिलता है कि 'स्वामी समन्तभद्र भ० महावीर स्वाय ध्रुव साम्तमानभूगो भवत्यभद्रोऽपि समन्तभवः॥ के तीर्थकी हजारगुनी वृद्धि करते हुए उदयको प्राप्त हुए'
-युक्तधनुशासन अर्थात्, उन्होंने उसके प्रभावको सारे देश-देशान्तरोंमें
अतः इस तीर्थके प्रचार-विषयमे जरा भी संकोचकी व्याप्त कर दिया था। आज भी वैसा ही होना चाहिये। जरूरत नही है, पूर्ण उदारताके साथ इसका उपर्युक्त रीतियही भगवान् महावीरकी सच्ची उपासना, सच्ची भक्ति
से योग्यप्रचारकोंके द्वारा खुला प्रचार होना चाहिये और और उनकी सच्ची जयन्ती मनाना होगा।
सबोंको इस तीर्थकी परीक्षाका तथा इसके गुणोंको मालूम *यह शिलालेख बेलर ताल्लुकेका शिलालेख नम्बर करके इससे यथेष्ट लाभ उठानेका पूरा अवसर दिया जाना १७ है, जो रामानुजाचार्य-मन्दिरके अहातेके अन्दर सौम्य- चाहिये । योग्य प्रचारकोंका यह काम है कि वे जैसे-तैसे नायकी-मन्दिरकी छतके एक पत्थर पर उत्कीर्ण है और शक जनतामें मध्यस्थभावको जाग्रत करें, ई-द्वेषादिरूप मत्सर सवत् १०५९ का लिखा हुआ है। देखो, एपिग्रेफिका भावको हटाएं, हृदयोंको युक्तियोंसे संस्कारित कर उदार कर्णाटिकाकी जिल्द पांचवीं अथवा स्वामी समन्तभद्र बनाएं, उनमे सत्यकी जिज्ञासा उत्पन्न करें और उस सत्यकी (इतिहास) पृष्ठ ४६ वा।
दर्शनप्राप्तिके लिये लोगोंकी समाधान दृष्टिको खोलें।
सरसावा, जनवरी १९५२, जुगलकिशोर मुस्तार
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