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बीवीरा सोक्यता
नास्ति पाति-मतो भेदो मनुष्याणां पाश्ववत् । सारी ही योग्यताएं मौजूद है. हर कोई भव्य जीव इसका माकृतिहणाशस्मावन्यपा. परिकल्पते ।
सम्यक् बाभय लेकर संसारसयुव्रते पार उतर सकता है। -महापुराणे, गुणभद्राचार्यः परन्तु यह समाजका और देशका दुर्भाग्य है जो बाज बिहानि विटवातस्य सन्ति नाज कानिचित् । हमने-जिनके हाथों दैवयोगसे यह तीर्थ पड़ा है-स मनामाचरन् किञ्चज्जावते नीचवोचरः॥ महान् तीर्थकी महिमा तथा उपयोगिताको भुला दिया है।
--पप्रचरिते, रविषेणाचार्य इसे अपना घरेलू, क्षुद्र या असर्वोदयत्तीका-सा रूप देकर वस्तुतः सब मनुष्योंकी एक ही मनुष्यजानि इस धर्म- इसके चारों तरफ ऊंची-ऊंची दीवारें खड़ी कर दी है
और इसके फाटकमें ताला डाल दिया है। हम लोग न तो को अभीष्ट है, जो 'मनुष्यजाति' नामक नामकर्मके उदय- ा से होती है, और इस दृष्टिसे सब मनुष्य समान है-
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खुद ही इससे ठीक लाभ उठाते है और न दूसरोंको लान आपसमें भाई-भाई हैं और उन्हें इस धर्मके द्वारा अपने
उठाने देते है-महज अपने थोड़ेसे विनोष बथवा क्रीड़ाके विकासका पूरा अधिकार प्राप्त है। जैसा कि निम्न वाक्यों
स्थल-रूपमें ही हमने इसे रख छोड़ा है और उसीका से प्रकट है
यह परिणाम है कि जिस 'सर्वोदयतीर्थ' पर रात-दिन उपा--
सकोंकी भीड़ और यात्रियोंका मेला-सालमा रहना चाहिये मनुष्यजातिरेकैब बालिकर्मोदयोद्भवा ।
था वहां आज सन्नाटासा छाया हुआ है, जैनियोंकी संख्या भी वृशिवाहिता वाचातर्विध्यमिहाश्नुते ॥३८.४५॥
अगुलियोंपर गिनने लायक रह गई है और जो जैनी कहे -आदिपुराणे, जिनसेनाचार्य
जाते है उनमें भी जैनत्वका प्रायः कोई स्पष्ट लक्षण दिखलाई विप्र-मत्रिय-बिट-शूवा प्रोक्ता. क्रियाविशेषत ।
नही पड़ता-कही भी दया, दम, त्याग और समाधिकी जैनधर्म परा शक्तास्ते सर्व बान्धवोपमा ॥
तस्परता नजर नहीं आती-लोगोंको महावीरके सदेश-धर्मरसिके, सोमसेनोद्धृत की ही खबर नही, और इसीसे संसारमें सर्वत्र दुःख ही दुःख इसके सिवाय, किसीके कुलमें कभी कोई दोष लग फैला हुआ है । गया हो तो उसकी शुद्धि की, और म्लेच्छों तक की कुलशुद्धि ऐसी हालतमें अब खास जरूरत है कि इस तीर्थका करके उन्हे अपने में मिलाने तथा मुनिदीक्षा आदिके द्वारा उद्धार किया जाय, इसकी सब रुकावटोंको दूर कर दिया ऊपर उठानेकी स्पष्ट आज्ञाएं भी इस धर्मशासनमे पाई जाय, इसपर खुले प्रकाश तथा खुली हवाकी व्यवस्था की जाती है। और इसलिये यह शासन सचमुच ही जाय, इसका फाटक सबोंके लिये हर वक्त खुला रहे, 'सर्वोदयतीर्थ' के पदको प्रात है-इस पदके योग्य इसमें सबोके लिये इस तीर्थ तक पहुचनेका मार्ग सुगम किया जाय, *जैसा कि निम्न वाक्योंसे प्रकट है:
वैवाहिकसम्बन्धानां सयमप्रतिपतेरविरोधात् । बया १. कुतश्चित्कारणास्य कुलं सम्माप्त-पूषणम्
तत्कन्यकाना चकवादिपरिणीतानां गर्भवत्पन्नस्य मातसोऽपि राजादिसम्मत्या शोषयेत्स्वं यदा कुलम् ॥४०-१९८॥ पक्षापेक्षया म्लेच्छ-व्यपदेशभाजः संयमसंभवात् तपाजातीयतबाऽस्योपनयाहत्वं पुत्र-पौत्रादि-सन्तती ।
कानां दीक्षाहत्वे प्रतिषेधाभावात् ॥" न निषिद्धं हि बीमाहें कुलेखेदस्य पूर्वजा. ॥४०-१६९॥
-लम्धिसारटीका (गाचा १९३वी) २. स्वदेशेऽनक्षरम्लेच्छाप्रजा-बाधा-विधायिनः ।
नोट-यहां म्लेच्छोंकी दीक्षा-योग्यता, सकलकुलशुद्धि-प्रदानाचः स्वसाकुर्यादुपकमै ॥४२-१७९॥ संयमग्रहणकी पात्रता और उनके साथ वैवाहिक सम्बन्ध
--आविपुराणे, जिनसेनाचार्यः आदिका जो विधान किया है वह सब कसायपहुडकी ३. "मलेच्छभूमिजमनुष्याणां सकलसंयमग्रहगं कथं 'जयघवला' टीकामें भी, जो लब्धिसारटीकासे कईसौ भवतीति नाऽशंकितव्यं । दिग्विजयकाले बातिना सह वर्ष पहलेकी रचना है, इसी क्रमसे प्राकृत और संस्कृत भार्यक्षमामागताना म्याराणानां बवादिभिः सह बात- भाषामें दिया है।