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________________ सर्वोदय तीर्थ (पं० कैलाशचन्द्र जैन शास्त्री) जैनधर्मके सिवाय अन्य किसी धर्ममें धर्मको 'तीर्थ' क्योंकि उसका काम तारना है, लोग उसे अपनाकर संसार और धर्मके प्रवर्तकको 'तीर्थकर' संज्ञा दिये जानेकी बात समुद्रसे तिर जाते हैं और फिर सदाके लिये उस जंजालसे मेरी दृष्टि में तो नही है । मैं तो इतना ही जानता कि छूट जाते है । अन्य धर्मों और उनके प्रवर्तकोंमें यह भावना जैनधर्म ही एक ऐसा धर्म है जिसके प्रवर्तक 'तीर्थकर' कहे उस रूपमें लक्षित नहीं होती। वे शास्ता है, अवतार है, स्रष्टा जाते है । शब्दकोश तकमें तीर्थकरका अर्थ जैनोंके उपास्य है, रक्षक है, सहारक है किंतु तारक नही है। और जो तारक देव किया गया है। इसी तरह 'तीर्थ' शब्दका प्रयोग भी नही है वह तीर्थकर भी नही है । और जो तीर्थंकर नहीं है, पवित्र स्थानोंके लिये किया जाता है। किंतु जैनधर्ममें उसका धर्म धर्म भले ही हो किंतु वह तीर्थ तो नहीं ही है। धर्मको तीर्थ कहा है, तभी तो उसके प्रवर्तक तीर्थकर अतः जैनधर्म केवल धर्म नहीं है किंतु तीर्थ है। इसीसे कहे गये है। जो धर्म तीर्थका कर्ता है वही तीर्थकर है। स्वामी समन्तभद्रने अपने बृहत्स्वयंभू स्तोत्रमें धर्मनाथ अब प्रश्न यह होता है कि क्यों जैनधर्ममें धर्मको तीर्थ तीर्थकरका स्तवन करते हुए उन्हें निष्पाप-बर्मतीर्थका और उसके प्रवर्तकको तीर्थकर संज्ञा दी गई है ? क्या प्रत्येक प्रवर्तक' कहा है। धर्म तीर्थ और उसका प्रवर्तक तीर्थकर कहा जा सकता है? इसपर पुनः प्रश्न उत्पन्न होता है कि क्या धर्म-सीर्ष उक्त प्रश्नपर विचार करनेके लिये हमें तीर्थ शब्दका सपाप भी होता है जो उसके पहले 'निष्पाप' विशेषण अर्थ जान लेना चाहिए । 'तीर्य' शब्दका अर्थ होता है लगाया है। तारनेवाला अथवा जिसके द्वारा निरा जाता है। नदियोंके यद्यपि इस प्रश्नका समाधान यह हो सकता है कि किनारे जो घाट बने होते है उन्हें भी इसीलिये ही तीर्थ कहते यहां निष्पाप विशेषण इतरव्यवच्छेदक नहीं है, किंतु वस्तूहै, उन स्थानोंमें स्नान अवगाहन आदि करने में कोई खतरा स्वभाव सूचक है अर्थात् वह इस बातको बतलाता है कि नही रहता। क्योकि वे स्थान अवगाहित होते हैं। तैरनेमें धर्मतीर्थ निष्पाप होता है, किंतु मुझे तो वह इतरव्यवच्छेदक कुशल अनुभवी पुरुषोंके द्वारा ही स्थापित किये जाते हैं। भी प्रतीत होता है और वस्तु-स्वरूप-निरूपक भी। जब धर्म तीर्थसे हम ऐसे धर्मको लेते हैं जो धर्म ही नहीं है किंतु जैनधर्ममें इस संसारकी उपमा समुद्रसे दी गई है। तीर्थ भी है तब निष्पाप विशेषण उसके स्वरूपका सूचक जैसे समुद्रको पार करना बहुत कठिन है वैसे ही इस संसारको हो जाता है, क्योंकि ऐसा धर्मतीर्थ सपाप हो ही नहीं सकता। भी पार करना बहुत कठिन है। किंतु कभी-कभी कोई ऐसे । किंतु जब हम धर्मतीर्थसे ऐसे धर्मको लेते हैं जो वास्तवमें भी वीर पुरुष जन्म लेते है जो अपनी भुजाओंसे समुद्र समुद्र तीर्थ नही है किंतु श्रद्धावश उसे धर्मतीर्थ संज्ञा दे दी गई है, को भी पार कर जाते है और फिर अपने अनुभवके बलपर तब निष्पाप विशेषण ऐसे धर्म तीर्थोसे वास्तविक धर्मतीर्थका पार उतरनेकी प्रक्रिया ही स्थापित कर जाते हैं जिसके व्यवच्छेदक उसकी विभिन्त्रताका बोष करानेवाला होता आश्रयसे पार उतरनेके इच्छुक पार उतरते रहते हैं। है । अब प्रश्न यह होता है कि बसली और नकली ___ तीर्थकर ऐसे ही वीर पुरुष होते हैं, वे संसाररूपी समुद्रको धर्मतीर्थकी पहिचान क्या है? इसके समाधानके लिये अपने बाहुबलसे पार करके धर्म-तीर्थकी स्थापना करते हैं। हमें वस्तु-स्वरूपका विश्लेषण करना होगा। क्योंकि वस्तुअतः उनका स्थापित किया हुआ धर्म वास्तवमें एक तीर्थ है। स्वरूपका नाम ही तो धर्म है।
SR No.538011
Book TitleAnekant 1952 Book 11 Ank 01 to 12
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJugalkishor Mukhtar
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year1952
Total Pages484
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Anekant, & India
File Size29 MB
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