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________________ १८ अनेकान्त [ वर्ष ११ ही क्षणमें सर्वथा नष्ट हो जाते। किंतु सत्का सर्वथा विनाश नही होता और सर्वया असत्की उत्पत्ति नहीं होती । किंतु वस्तुको सर्वथा क्षणिक माननेसे सत्का सर्वथा नाश और सर्वथा असत्का उत्पाद मानना पड़ता है जो ठीक नहीं है । अतः वस्तु किसी दृष्टिसे नित्य है और किसी दृष्टिसे अनित्य है । अर्थात् द्रव्य दृष्टिसे नित्य है और पर्याय दृष्टिसे अनित्य हैं । इसी तरह द्रव्यकी अपेक्षा वस्तु एक है और पर्याय अथवा गुणोंकी अपेक्षा अनेक है; क्योकि प्रत्येक द्रव्यमें अनेक पर्याएं और अनेक गुण रहते है । प्रत्येक वस्तु दो बातोंपर कायम है-स्वरूपका ग्रहण और पररूपोंका अग्रहण इन दोनोंके बिना वस्तु कायम ही नहीं रह सकती । उदाहरणके लिये किसी एक घटको ले लीजिये । वह घट अपने स्वरूपको लिये हुए हैं, इसमें तो किसीको कोई विवाद हो नहीं सकता। किंतु उस घटका अस्तित्व केवल स्वरूपके ग्रहणपर ही कायम नहीं है, बल्कि उस घटके सिवाय संसार भरके अन्य जितने भी पदार्थ हैं, उन सब पदार्थोंके स्वरूपोंको वह जो ग्रहण नही किये हुए हैं उस पर भी उसका अस्तित्व कायम है, यदि ऐसा न हो तो इसका मतलब यह होता है कि वह घट केवल अपने स्वरूपको ही ग्रहण किये हुए नही है, किंतु अन्य वस्तुओंके स्वरूपोंको भी ग्रहण किये हुए हैं। और ऐसा होनेसे वह घट सबरूप कहा जायेगा। फिर वह केवल एक विवक्षित घट न रहकर पट, मठ आदि अन्य पदार्थरूप भी हो जायगा । जो बात एक घटके विषयमें है, वही सब वस्तुओंके विषयमें लागू होती है । अतः प्रत्येक वस्तु स्वरूपकी अपेक्षा है और पररूपकी अपेक्षा नही है। यदि ऐसा नही माना जायगा तो सब वस्तुएं सबरूप हो जायेंगी और ऐसी स्थितिमें किसी वस्तुका कोई निश्चित आकार नही रहेगा। फिर तो किसीसे दही खानेको कहनेपर वह ऊँट खानेके लिये भी दौड़ पड़ेगा; क्योंकि दही और ऊंटमें तब कोई स्वरूप भेद नहीं बनेगा । अतः कोई वस्तु न सर्वथा सत् है और न सर्वथा असत् है । जो सत् है वह किसी अपेक्षासे ही सत् है और जो असत् है वह किसी अपेक्षासे ही असत् है । दूसरे शब्दोंमें जो सत् है वह किसी अपेक्षासे असत् भी है और जो असत् है वह किसी अपेक्षासे सत् भी है। इसी तरह न कोई बस्तु सर्वथा नित्य ही है और न कोई वस्तु सर्वथा afree ही है । यदि वस्तु सर्वथा नित्य होती तो संसारमें जो परिवर्तन दिखाई देता है वह न हो सकता । क्योकि परिवर्तनका नाम ही तो अनित्यता है । परिवर्तनशील भी हो और सर्वथा नित्य भी हो दोनों बातें एक साथ संभव नहीं है । इसी तरह यदि वस्तु सर्वथा अनित्य अर्थात् क्षणिक होती तो क्षण-क्षणमें वस्तुका सर्वथा विनाश होनेसे देन लेनका जितना भी लौकिक व्यवहार है वह नहीं होता; क्योंकि जिसने दिया और जिसने लिया वे दोनों दूसरे इस तरह विभिन्न दृष्टिकोणोसे विचार करने पर ही वस्तुके यथार्थ स्वरूप तक पहुंचा जा सकता है । यदि इन विभिन्न कोणोंको भुला दिया जाये और वस्तुके किसी एक धर्मको ही पूर्ण वस्तु मान लिया जाय तो इसे सत्यका घात करना ही कहा जायगा । खेद है कि संसारके एकान्तबादी दर्शनोंने इस वस्तुसत्यकी ओर ध्यान नही दिया और वस्तु स्वरूपका विचार एकागी दृष्टिसे किया। किंतु अनेकान्तवादी जैन-दर्शनने वस्तुस्वरूपको जानने और उसका निरूपण करनेमें सापेक्षवादका अवलम्बन लिया और निरपेक्षवादको मिथ्या बतलाया। अतः जहां विश्वके इतर दर्शन एक-एक दृष्टिकोणको अपनाकर उसे पूर्ण सत्य समझ बैठे हैं वहां जैन दर्शन प्रत्येक दर्शनके अपने अपने दृष्टिकोणको पूर्ण सत्यका अंश मानता है, किंतु वे सब अंश चूकि परस्पर निरपेक्ष हैं इसलिये वे मिथ्या है। यदि सभी परस्पर सापेक्ष हो जायें तो उनके समीकरणसे पूर्ण सत्य तक पहुंचा जा सकता है । विश्वमें जितने भी झगड़े फिसाद हुए हैं तथा आगे होंगे, उन सबके मूलमें एक ही तत्व रहा है और रहेगा और वह तत्त्व है अपने दृष्टिकोणको ही सत्य मानना और शेषको असत्य । यह हो सकता है कि विभिन्न परिस्थितियों में fafe दृष्टिकोणोकी प्रधानता और अप्रधानता रहे, किंतु निरपेक्ष एक ही दृष्टिकोण कभी भी सत्य नही हो सकता । और इसलिये वह आपत्तियोंका घर है । इसके विपरीत सब दृष्टियोंका समन्वय करके चलने से सब आपत्तियोंका अन्त हो जाता 1 अतः जो धर्म निरपेक्षवादका आलम्बन लेकर एकान्त
SR No.538011
Book TitleAnekant 1952 Book 11 Ank 01 to 12
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJugalkishor Mukhtar
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year1952
Total Pages484
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Anekant, & India
File Size29 MB
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