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[किरण ११
कुछ नई खोजें
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पुराण संग्रह चन्द्रप्रभ पुराण) है । प्रथम ग्रन्थ कविने मालव नगरके पार्श्वनाथ जिनालयमें वि•संवत् ११५४ की बैशाख नामक देशमें स्थित विजयसारके दिविजनामक दुर्ग में स्थित शुक्ला सप्तमी गुरुवारको समाप्त किया गया है। दूसरी देवालयमें हुई है। उस समय दुर्गमें अरिकुलशन साम- कृति 'वृषभदेव पुराण' है जो २५ सों अथवा अध्यायों में न्तसेन हरितनुका पुन अनुरुद्ध पृथ्वीका पालन करता था, पूर्ण किया गया है। इस ग्रन्थकी प्रशस्तिमें प्रन्यका रचनाजिसके राज्यका प्रधान सहायक रघुपति नामका एक महा- काल दिया हुआ नहीं है । तीसरी कृति 'पद्मपुराण' है स्मा था उसका पुत्र धनराज ग्रन्थकर्ताका परमभक्त था जिसकी पत्र संख्या ४१२ है । यह ग्रन्थ भामेर भंडारमें उसीकी सहायतासे इस ग्रंथकी रचना सं० १६९२ में सुरक्षित है । इस ग्रन्थमें भी रचनाकाल दिया हुश्रा नही
है। इस कारण यह निश्चय करना कठिन है कि उक्त तीनों दूसरे ग्रन्थमें जैनियोंके ८वें तीर्थंकर चन्द्रप्रभ भगवान प्रन्धों में से पहले किमकी रचना हुई है। इनके अतिरिक्त का जीवन परिचय दिया हुआ है। इस ग्रन्थमें ग्रन्थकर्ता- भ० चन्द्रकीर्तिने और भी अनेक ग्रन्थोंकी रचना की है। ने अपनेसे पूर्ववर्ती भद्रबाहु, समन्तभद्र, अकलंकदव, जिन- उनके कुछ नाम इस प्रकार हैं:-पंचमेरू पूजा, अनंतव्रतपेन, गुणभद्र और पद्मनन्दी नामके प्राचार्योंका स्मरण पूजा, और नन्दीश्वरविधान • प्रादि । चूकि ये तीनों ही किया है। यह प्रथ २७ मर्गों में समाप्त हुआ है। ग्रन्थ सामने नहीं हैं। अतः इनके सम्बन्धमें कोई यथेष्ट
गुर्जरवन्शका भूषण राजा ताराचन्द्र था, जो कुम्भ- सूचना इस समय नहीं की जा सकती। नगरका निवासी था और दिलाक बादशाह द्वारा सम्मानित ७.गुणभद्र-इस नामके अनेक विद्वान प्राचार्य और था। उसके पदपर सामन्तसिंह हुआ जिसे दिगम्बराचार्यक भट्टारक हो गए हैं, उनमें प्राचार्य जिनमेनके शिष्य गुणउपदेशन जैनधर्मका लाभ हुअा था । उसका पुत्र भद्राचार्य प्रमुख हैं। जिनका समय विक्रमकी नौमी शताब्दी पद्मसिंह हुआ जो राजनीतिमें कुशल था, उसकी का अन्तिम भाग और दशमी शताब्दीका प्रारम्भिक भाग धर्मपत्नीका नाम “वीणा" देवी था, जो शीलादि है। यहाँ उन सब गुणभद्रोंको छोड़ कर मुनि माणिक्यसेनके सद्गुणोंसे विभूषित थी, उसीके उपदेश एवं अनुरोधमे प्रशिष्य और नेमिसेनके शिष्य गुणभद्रका उल्लेख करना उक्त चरित ग्रन्थकी रचना हुई है। प्रस्तिमें रचनाकाल इष्ट है । अतः उन्हींके सम्बन्धमें यहाँ कुछ लिखनेका दिया हुया नहीं है, इस लिए यह बतलाना सम्भव विचार है। नहीं है कि यह ग्रन्थ किम सम्बतम बना है।
प्रस्तुत गणभद्र सैद्धान्तिक विद्वान थे, वे मिथ्याव ६.भट्टारक चन्दकीति-यह काष्ठासंघ नन्दितटगच्छक तथा कामके विनाशक और स्याद्वादरूपी रत्नभूषणके धारक भट्टारक विद्याभूषणके प्रशिष्य और भट्टारक श्रीभूपणके थे। इन्होंने राजा परमार्दिके राज्यकालमें विलासपुरके जैनशिष्य एवं पट्टधर थे। यह ईडरकी गहीक भट्टारक थे, और मन्दिर में रह कर लंबकंचुक (लमेच) वंशके महामना ईडर की गद्दी के पट्टस्थान उस समय सूरत, डूंगरपुर, माह शुभचन्द्र के पुत्र बल्हणके धर्मानुरागसे 'धन्यकुमारमोजिना, झेर और कल्लाल आदि प्रधान नगरों एवं कस्बामें चरित' की रचना की है। ग्रन्थकी अन्तिम प्रशस्तिमें थे। इन स्थानोमस भ० चन्द्रकीर्तिजी किस स्थानके पट्टधर कर्ताने अपना कोई परिचय नहीं दिया और न गण गच्छादिथं यह निश्चितरूपसे मालूम नहीं हो सका, पर जान का ही कोई उल्लेख किया, जिमम ग्रन्थके समयादिका परिपड़ता है कि वे इडरके समीपवर्ती किसी स्थानके पट्टधर चय दिया जाता | प्रशस्तिमें उल्लिग्वित राजा परमादि किम रहे हैं। इन्होंने अपने ग्रन्थों में अपनी पूर्व गुरुपरम्परा वंशका राजा था यह कुछ मालूम नहीं होता, ग्रन्थकी यह भहारक रामसेनसे बतलाई है। इनकी इस समय तीन प्रति संवत् १५०१ की लिम्बी हुई है जिसमे यह स्पष्ट हो रचनाएँ मेरे देखने में आई हैं, और वे तीनों ही पुराण जाता है कि उक्त ग्रन्थ संवत् ११०१ से पूर्व रचा गया है, ग्रन्थ हैं, और उनके नाम पावपुराण, वृषभदेवपुराण परन्तु कितने पूर्व यह कुछ ज्ञात नहीं होता। और पमपुराण हैं।
इतिहासमें अन्वेषण करने पर हमें परमादि नामके दो इनमेंसे 'पावपुराण' १५ सोमें विभक्त है, जिसकी राजाओंका उल्लेख मिलता है, जिनमें एक कल्याणके हैहयश्लोक संख्या २७१५ है और वह देवगिरि नामक मनोहर वंशी राजाओंमें जोगमका पुत्र पेमादि या परमादि था