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________________ [ ३७२ अनेकान्त कवि जगनाथ भी संस्कृत भाषाके प्रौढ़ विद्वान थे । और भ० नरेन्द्रकीर्तिके शिष्य थे। इनकी इस समय तीन कृतियाँ समुपलब्ध हैं जो मेरे अवलोकनमें आई है। इनमें सबसे पहली कृति 'चविंशनिसंधान है। इस प्रथक एक ही पचको २४ जगह कर उसकी स्वोपज्ञ टीका जिमी है जिसमें हम एक ही पचके चौवीस अर्थ किये गये हैं। यह प्रन्थ टीकासहित मुद्रित हो गया है। इसका रचनाकाल वि० सं० १६ । दूसरी कृति 'सुखनिधान' है। इसकी रचना कवि जगन्नायने 'तमालपुर में की थी। इस ग्रन्थ में कविने अपनी एक और कृतिका उल्लेख " अन्यच्च - प्रस्माभिरुक्त शृंगार समुद्र काव्ये" वाक्य के साथ किया है। तीसरी कृति 'श्वेताम्बर पराजय' है जिसमें श्वेताम्बर सम्मन केवनिमुक्तिका सयुक्तिक निराकरण किया गया है । इस ग्रन्थ में भी एक और अन्य कृतिका सम्मुलेख किया है और उसे स्वोपज्ञ टीकासे युक्त बतलाया है। 'तदुक्त' ने मनरेन्द्रस्तोत्रे स्वोपज्ञे' इसमे नेमिनरेन्द्रस्तोत्र नामकी स्वीकृतिका धीर भी पता चलता है जिसका एक पथ भी उद्धृत किया गया है जो इस प्रकार है: 'यदुत तथ न भुक्तिन्नष्टदुः:ग्वोदयत्वाद्वसनमपि न चांगे वीतरागत्वतश्च । इति निरुपमहेतुब्ब सिद्ध सिद्धौ, विशद-विशदष्टीनां हृदि ल (?) सुमुक्तये ।' इनकी एक और अन्य रचना ' सुषेणचरित्र' है जिसकी पत्र संख्या ४३ है और जो सं० १८४२ की जिमी हुई है । यह ग्रन्थ भट्टारक महेन्द्रकीर्ति आमेरके शास्त्र भण्डारसुरक्षित है। इस तरह कवि जगन्नाथकी छह कृतियांका पता चल जाता है । इनकी अन्य क्या क्या रचनाएँ हैं यह अन्वेष खी है। इनकी मृत्यु कब और कहां हुई इसके जानने का कोई साधन इस समय उपलब्ध नहीं है। पर इनकी रचनाओंके अवलोकनसे यह १७ वीं शताब्दीके उत्तरार्ध और १८ वीं शताब्दीके पूर्वार्धके सुयोग्य विज्ञान जान पढ़ते हैं। किरण ११] ४ भट्टारक सुमतिकीर्ति - यह मूखसंघमें स्थित नन्दिमंत्र बजारकारगण और सरस्वतिगच्छके महारक ज्ञाननूषय के शिष्य थे। उपमीचन्द्र और वीरचन्द्र नामके महारक भी इन्हींके समसामयिक थे। भ० ज्ञानभूषण इन्हीं अन्वयमें हुए हैं। भट्टारक ज्ञानभूषणने अपना 'ज्ञानतरंगिणी' नामका प्रन्थ संवत् १५६० में बनाकर समाप्त किया है। इनकी अन्य भी कई रचनाएं उपलब्ध है। नेमिदास चतुर्थ विमलदास टोडामें विषो हुवो, जब याह पोथी लुटी महां थे छुबाइ फाटी-तुटी सवारि सुधारि भाछी करी ज्ञानवरच कर्म या पुत्रादि पटनायें शुभं भवतु। गुटका प्रशस्ति सुमतिकीर्ति ईडरकी महीके महारक थे। इन्होंने प्राकृत पंचसंग्रहकी संस्कृत टीका ईलाब (ईडर) के ऋषभदेवके मन्दिरमें वि० सं० १६२० में भाद्रपद शुक्ला दशमी के दिन समाप्त की थी। इस ग्रन्थका उपदेश उन्हे 'हंश' नामके वसे प्राप्त हुआ था। इस टीकाका संशोघन भी ज्ञानभूपणने किया था। कर्मकाण्ड टीका (१६० गाथामक कर्मप्रकृति टीका) का भी महारक सुमतिकीर्तिने ज्ञानभूषणके साथ बनाया था और उसे ज्ञानभूषण के ही नामांकित भी किया था । इनके अतिरिक्त 'धर्मपरीवाराम' नामका एक प्रव और भी मेरे देखने में आया है, जिसकी पत्र संख्या ८२६, जो गुजराती भाषा में पद्यबद्ध है और जिसकी रचना हांसोट नगर में वि० सं० १६२५ में बनकर समाप्त हुई है । इसके सिवाय, ऐलक पन्नालाल दि० जैन सरस्वति भवन बम्बईकी सूची में 'उत्तरसीसी' नामका एक संस्कृत ग्रन्थ गणित विषयपर लिखा गया है और उसके कर्ता भी भ० सुतकीर्ति बतलाये जाते है। संभव है यह भी उनकी कृति हो और भी उनकी रचनाएँ होगी, पर वे सामने न होनेसे उनके सम्बन्धमे विशेष कुछ नहीं कहा जा सकता । भ० सुमतिकीर्तिके उपदेशले अनेक मूर्तियों की प्रतिष्ठा की गई हैं जिनका उल्लेख सूरत श्रादिके मूर्ति लेखोंसे पता चलता है ये स्वयं प्रतिष्ठाचार्य भी वे और इन्होंने अनेक मूर्तियां की प्रतिष्ठा कराई थी । इनका समय विक्रमकी १७वी शताब्दीका मध्य भाग है । I 1 ५ पंडित शिवाभिराम-इन्होंने अपनी कृतियोंमें अपना कोई परिचय नहीं दिया; किन्तु एक ग्रन्थ में उसका रचनाकाल दिया हुआ है जिससे ज्ञात होता है कि वे विक्रमकी १७वीं शताब्दी के उत्तरार्धके विद्वान है। उनकी इस समय दो कृतियों के प्राप्त हुई है जिनमें एकका नाम 'पद्म तु वर्तमान जिनान है और दूसरीका नाम 'अष्टम जिन
SR No.538011
Book TitleAnekant 1952 Book 11 Ank 01 to 12
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJugalkishor Mukhtar
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year1952
Total Pages484
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Anekant, & India
File Size29 MB
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