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[किरण ११
कुछ नई खोजें
अम्वेषणसे सम्बन्ध रखता है, इस सम्बन्ध में मेरा अन्वेषण यह ग्रन्थोंका अनुपावन किये विना निर्णय नहीं हो सकता, कार्य चालू है। अभी हालमें अनेकान्तकी वर्ष"किरण उन ग्रन्थोके नाम इस प्रकार हैं। ७-८ में प्रभाचन्द्र के शिष्य पणनन्दीकी भावनापति' सिद्धचक्रपाठ, २ मन्दीश्वरप्रतकथा, ३ अनन्तव्रतकथा, जिसका दूसरा नाम भवना-चतुस्त्रिंशतिका' है। पचनन्दि ४ सुगन्धदशमी कथा, ५ षोडशकारणकथा, ६ रत्नत्रयव्रतमुनि द्वारा रचित एक 'वर्द्धमान चरित्र' नामका एक संस्कृत कथा, ७ आकाशपंचमी कथा, रोहिबीबतकथा, धनग्रन्थ जो सं० १५२१ फाल्गुण वदि . मी का लिखा हुमा कलशकथा, १० निर्दोषससमी कथा, ११लब्धिविधानहै गोपीपुरा सूरतके शास्त्रभंडार और ईडरके शास्त्र- कथा, १२ पुरन्तरविधानकथा, १३ कर्मनिर्जर चतुर्दशीवतभंडारमें विद्यमान है, बहुत संभव है कि वह इन्हीं कथा, १४ मुकुट सप्तमी कथा, १५ दशलाक्षिणीव्रतकथा, पचनन्दीके द्वारा रचा गया हो । ग्रन्थ प्राप्त होने पर १६ पुष्पांजलिव्रतकथा, १० ज्येष्टजिनवरकथा, १८ अक्षयउसके सम्बन्ध विशेष प्रकाश डालनेका यत्न किया निधि दशमीव्रतकथा, १६ निःशल्याष्टमी विधान कथा, जायगा।
२० रक्षाविधान कथा, २१ श्रुतस्कन्ध कथा, २२ कंजिका२. ललितकीर्ति-यह भट्टारक ललितकीर्ति काष्ठा
वनकधा, २३ सप्तपरमस्थान कथा, २४ षटूरसकथा। संघ माथुरगच्छ और पुष्करगणके भट्टारक श्री जगत
___ऊपरके कथनसे भट्टारक ललितकोतिका समय विक्रमकी कीर्तिके शिष्य थे। जो दिल्लीकी भट्टारकीय गहीके पट्टधर थे। १६ वा शता यह बड़े विद्वान और वका ल काजीनिय ३ पंडित जगन्नाथ-इनका वंश खण्डेलवाल था थे। भ० ललितकीर्तिके समयमें देहलीकी भट्टारकीय गद्दीका
और यह पोमराज श्रेष्ठीके लघुपुत्र थे । इनके ज्येष्ठभ्राता महत्व लोकमें ख्यापित था। आपके पास देहलीके बादशाह
वादिराज थे, जो संस्कृतभाषाके प्रौढ़ विद्वान और कवि अलाउद्दीन खिलजी द्वारा प्रदत्त वे बत्तीस फर्मान और
थे। इन्होंने संवत् १७२ में वाग्भट्टालंकारकी 'कविचन्द्रिका' फीरोजशाह तुगलक द्वारा प्रदत्त भट्टारकांकी ३२ उपा- नामकी एक टीका बनाई थी, जो अभी तक अप्रकाशित है। धियाँ सुरक्षित थीं । परन्तु खेद है कि ग्राज उनका पता भी इनका बनाया हुआ 'ज्ञानलोचन' नामका एक स्तोत्र भी नहीं चल रहा है, वे कहां और किसके पास हैं ? भट्टारक है जो माणिकचन्द्र दि० जन ग्रन्थमालासे प्रकाशित हो बलितकीर्ति दहलीसे कभी कभी फतेहपुर भी शाया जाया चुका है । यह तक्षक (वर्तमान टांडा) नामक नगरके निवासी करते थे और वहां महीनों ठहरते थे। यहां भी आपके थे। पं.दीपचन्द्रजी पाण्ड्या केकड़ीके पास एक गुटका है अनेक शिष्य थे। सम्यक्त्वकौमुदी संस्कृत की ५ प्रति जिसके अन्तकी संवत् १७५१ की मगशिर बदी की सं. १८९१ में भ. ललितकीर्तिके पठनार्थ जेठ वदी १२ लिपि प्रशस्ति ज्ञात होता है कि साह पोमराज श्रेष्ठीका को फरुखनगरके जैन मन्दिरमें माहबरामने जिवी थी। गोत्र मोगानी था और इनके पुत्र वादिराजके भी चार पुत्र
प्राचार्य जिनसेनके महापुराणकी संस्कृतटीका इन्द्री थे, जिनके नाम रामचन्द्र, लालजी, नेमीदास, और भधारक ललितको निका
विमलदास थे। विमलदासके उक्त समयमें टोडामें उपद्रव तीन भागोंमें बांटा है। जिनमें प्रथम भाग १२ पाकार हुआ और उसमें वह गुटका भी लुट गया था, बाद में उसे जिसे उन्होंने संसारमा प्रतिपक्ष छुड़ाकर लाये जो फट गया था उसे संवारकर ठीक किया रविवारके दिन समाप्त किया था। और ४३वे पर्वसे ४७३
गया। गया। ४ वादि
वादिराज राजा जयसिंहके सेवक थे-अर्थात् वे पर्व तक ग्रन्थकी टीकाका दसरा भाग है। जिसे उन्होंने जयपुर राज्यके किसी ऊचे पद पर प्रतिष्ठित थे। सं. 1मर में पूर्ण किया है। इसके बाद उत्तरपुराणकी x प्रस्तुत गुटकेकी प्रथम प्रति सं० १६१० की लिखी टीका बनाई गई है। महापुराण की इस टीकाके अतिरिक्त हुई थी उसी परसे दूसरी कापी सं. १७१७ में की भट्टारक खलितकीर्तिने अन्य किन किन ग्रन्थोंकी रचनाकी गई है:है यह निश्चयतः नहीं कहा जा सकता। हां, ललितकीर्तिके संवत् १७५० मगसिर वदी १ तक्षक नगरे खंडेलवा नामसे अकिंत निम्न प्रध प्रध-भण्डारों में पाये जाते हैं, लान्वये सोगानीगोत्रे साहपोमरीज तत्पुत्र साह वादिराज वे इन्हीं की रचना है या अन्य किसी ललितकीर्ति की, तत्पुत्र चत्वारः प्रथमपुत्र रामचन्द्र द्वितीय लालजी तृतीय