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कुछ नई खोजें
(पं० परमानन्द जैन शास्त्री) १मुनिपदमनन्दी-जैन साहित्यमें पधनन्दी नामके में चैत्रसुदीपंचमीके दिन देहलीके बादशाह पेरोजशासके राज्य भनेक प्राचार्य और विद्वान भट्टारक होगये हैं। उनमें प्रस्तुत कालमें - लिखी गई है। उसकी लेखक प्रशस्तिसे ज्ञात होता पानन्दी भधारक प्रभाचन्द्र के पट्टधर है-शिप्य हैं,जो देहली- है कि उस समय भ. रत्नकीर्तिके पट्ट पर भ. प्रभाचन्द्र की भट्टारकीय गही पर आसीन थे और भट्टारक रत्नकीर्तिके प्रतिष्ठित हुए थे। तब उक्त' भ. प्रभाचन्द्र के शिष्य ब्रह्मपट्ट पर प्रतिष्ठित हुए थे । भ० पद्मनन्दी अपने समयके बहुत नाथूरामने उक्त अाराधना ग्रन्थकी पंजिका टीका धारमही प्रभावशाली और विद्वान भट्टारक थे। ये भट्टारक पद्म- पाठनार्थ लिखाई थी। इससे भट्टारक प्रभाचन्द्रका समय नन्दी वही हैं जिनकी प्रतिकृति बिजोलियाके मानस्तम्भाके विक्रमकी १५ वीं शताब्दीका पूर्वार्ध जान पड़ता है और पाषाणांमें अंकित है। इनके अनेक शिष्य थे, उनमें भट्टा- उनके पट्टधर मुनि पद्मनन्दीका समय कमसे कम २५ वर्ष रक शुभचन्द्र इनके पट्टधर शिष्य थे । और दूसरे शिष्य बादका समझना चाहिये। इस तरह उक्त मुनि पद्मनन्दी भ. सकलकीर्ति थे, जिनमे ईडरकी भट्टारकीय गहीकी विक्रमकी १५ वीं शताब्दीके मध्य कालके विद्वान निश्चित परम्परा चली है। यह अपने समयके बहुत ही प्रभावक होते हैं। विद्वान और तपस्वी थे, इनके शिष्योंमें मतभेद होजानेक मुनि पद्मनन्दीने अपने श्रावकाचारकी प्रशस्तिमें भट्टाकारण भहारकीय गहीकी दो परम्परा चालू हुई हैं, एक भ० रक रस्नकीर्तिका भी आदर पूर्वक उल्लेख किया है। प्रशस्तिमकल कीर्तिकी, और दूसरी देवेन्द्रकीतिको इन्होंने अनेक में उक्त श्रावकाचारके निर्माण में प्रेरक लंबकंचुक (लमेच) अन्योंकी रचनाकी है। इनका समय भी विक्रमकी १५ वी कुलान्वयी साह वासाधरके वंशका परिचय भी दिया हुआ शताब्दीका मध्य और कुछ अन्तिम भाग रहा है। है। साहू वासाधरके पितामह 'गोकर्ण' थे, जिन्होंने
भट्टारक पद्मनन्दीका निम्न ग्रंथ उपलब्ध हाई 'सूपकारसार' नामके एक ग्रन्थकी रचना भी की थी। जिसका नाम 'श्रावकाचार मारोद्धार है। इस प्रन्थ में तीन इन्हीं गोकर्णके पुत्र सोमदेव हुए। इनकी धर्मपत्नीका परिच्छेद हैं जिनमें गृहस्थ-विषयक माचारका प्रतिपादन नाम 'प्रेमा था उसमे सात पुत्र उत्पन्न हुए थे। वायाधर. किया गया है। ग्रन्थमें रचनाकाल दिया हुआ नहीं हैं
हरिराज, प्रह्लाद, महाराज, भवराज, रतन और मतनाख्य । जिससे यह निश्चय करना अत्यन्त कठिन है कि यह ग्रन्थ
इनमें साह वासाधरकी प्रार्थनामे ही उक्त ग्रन्थ रचा कर रचा गया है, ग्रन्थकी यह प्रति वि० सं० १९६४ की
गया है। लिग्बी हुई है। जिससे इतना तो स्पष्ट हो जाता है कि
प्रस्तुत पद्मनन्दीने इस श्रावकाचारके अतिरिक्त और मुनि पद्मनन्दी सं० १५६४ से पूर्ववर्ती हैं, कितने पूर्ववर्ती हैं।
किन किन अन्योंकी रचनाकी है यह विषय ग्रन्थ भंडारोंके यह नीचेके विचारोसे स्पष्ट होगा।
___पेरोजशाह तुगलक सन् १३५७ में दिल्लीके तख्त 'भगवती भराधनाकी पंजिका ® टीका जो संवत् १४१६
पर बैठा था, उसने सन १३५१ से सन् १३५८ तक अर्थात
वि० संवत् १४०८ से संवत् १४४५ तक राज्य किया है। ® "संवत् १४१६ वर्षे चैत्रसुदि पंचम्यां सोमवासरे . संवत् १४४५ में उसकी मृत्यु हुई थी। इससे स्पष्ट है कि सकलराजशिरोमुकुटमाणिक्यमरीचि पिंजरीकृतचरणकमल भट्टारक प्रभाचन्द्र रत्नकीर्तिके पट्ट पर सं० १४०८ के बाद पादपीठस्य श्रीपेरोजमाहेः सकलसाम्राज्यधुरीविभ्राणस्य ही किसी समय प्रतिष्ठित हुए थे। समये श्री दिल्या श्री कुन्दकुन्दाचार्यान्वये सरस्वती गच्छे + 'सूपकारसार' नामका यह मय अभी तक मास बलात्कारगणे महारक श्री रत्नकीर्तिदेवपहोदयाद्रितरुण- नहीं हुआ। इसका अन्वेषण होना चाहिये । संभव है वह तरणित्वमुकुर्वाणं भट्टारक श्री प्रभाचन्द्रदेव तरशिष्याणां किसी प्रथभंगारकी कालकोठरीमें अपने शेष जीवनब्राह्मनाथूराम इल्याराधना पंजिका (१) अन्य प्रात्मपठ- की पलियां बिता रहा हो, और वोज करनेसे वह प्राप्त मार्थ खिखापितम् ।"
हो जाय।