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अनेकान्त
व्रात्योंके प्रति आदर
इस जिज्ञासाके फलस्वरूप उनका व्रात्यों और यतियोंके प्रति आदर और सहिष्णुताका व्यवहार बढ़ने लगा । ब्राह्मण ऋषियोंने गृहस्थ लोगोंके लिये यह नियम कर दिया कि जब कभी व्रात्य व्रतधारी साधु अथवा श्रमणजन घूमते-फिरते हुए आहार लेनेके लिये उनके घर आयें तो उनके साथ अत्यन्त विनयका व्यवहार किया जावे, महांतक कि यदि उनके आनेके समय गृहपति अग्निहोत्र में व्यस्त हो तो गृहपतिको अग्निहोत्रका कार्य छोड़ उनकी आतिथ्य सेवा करना अधिक फलदायक है।"
ब्रह्मविद्याकी खोज
ज्ञानकी इस अदम्य प्याससे व्याकुल हो अनेक प्रसिद्ध ऋषिकुलोंके पूर्ण शिक्षाप्राप्त नवयुवक परवार छोड़ ब्रह्मविद्याकी खोज में निकल पड़े। वे दूर-दूरकी यात्राएं करते हुए, जंगलोंकी खाक छानते हुए, गान्धारसे विदेह तक, पांचालसे यमदेश तक, विभिन्न देशोंमें विचरते हुए, ब्रह्मविद्याके पुराने जानकार क्षत्रिय घरानोंमें पहुंचने लगे, वे वहां शिष्य भावसे ठहर कर इंद्रिय संयम, ब्रह्मचर्य, तप, त्याग और स्वाध्यायका जीवन बिताने लगे ।
इनकी इस अपूर्व जिज्ञासा, महान उद्यम, और रहस्यमयी संवादोंके आख्यान भारतीय वाङ्मयके जिस भागमें सुरक्षित हैं, उसका नाम उपनिषद् है । यों तो ये उपनिषद् संख्या में १०० से भी अधिक हैं, परन्तु ऐतिहासिक दृष्टिसे ग्यारह मुख्य उपनिषद — ईश, केन, कट, मुण्ड, मांडुक्य, प्रश्न, छांदोग्य, वृहदारण्यक, तैस्तिीय, एतरेय और श्वेताश्वर, बहुत ही उपयोगी है। चूंकि इन उपनिषदोंमें महाभारतकालसे लेकर वैदिक और श्रमण दो मौलिक संस्कृतियोंके
सम्मेलनको कथा अंकित हैं* चूकि इनमें जिज्ञासुक
१. अथर्ववेद, कांड १५, सूक्त १ (११), १ (१२), १ (१३), २. (i) "Upnishads are the Product of the Arya, Dravidian inter Mixture of Cultures"
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ऋषि-पुत्रोंकी सरल विचारणा, सत्यपरायणता और तत्कालीन आध्यात्मिक शिक्षा-दीक्षाके जीते जागते चित्र दिये हुए हैं, चूंकि इनमें आर्म्यऋषियोंके तत्त्वज्ञान का अन्तिम निष्कर्ष दिया हुआ है, चूंकि ये वैदिक वाङ्मयके अन्तिम फल वेदान्त रूप हैं, और आधुनिक हिंदू दर्शन शास्त्र मूलाधार है, इन्हीका दोहन करके २०० वी. सी. के लगभग बादरायण ऋषिके नामसे ब्रह्मसूत्रकी रचनाकी गई है, इसलिये इनका भारतीय साहित्यमें एक अमूल्य स्थान है । बुद्ध और महावीरसे पहलेकी भारतीय संस्कृतिकी जांच करनेके लिये इनका अध्ययन बहुत ही आवश्यक है ।
KEITH-Religion and Philosophy of the Vedas and Upnishads-pp. 497. (ii) Dr. Wintevnitz - History of . Indian Literature — Vol I pp. 226-244.
उस समय ब्रह्मज्ञानके प्रसारमें पिप्पलाद, अंगिरस, याज्ञवल्क आदि ऋषियोंके अलावा जिन क्षत्रिय राजाओंने बड़ा भाग लिया है, वे है केकयदेशके अश्वपति, पांचालदेशके प्रवाहण जैबलि, काशीके अजातशत्रु, विदेहके जनक, और दक्षिणदेशके विवश्वत यम आदि । इनके आख्यानोंके कुछ नमूने यहां उद्धृत किये जाते हैं। प्रवाहणजैबलि की कथा"
एक बार अरुणि गौतम ऋषिका पुत्र श्वेतकेतु पांचाल देशके क्षत्रियोंकी सभामें गया, तब पांचालके राजा प्रवाहण जैबलिने उसको कहा - हे कुमार ! क्या हां भगवन् ! उसने मुझे शिक्षा दी हैं । तुझे तेरे पिताने शिक्षा दी है ? यह सुनकर उसने उत्तर दिया
राजाने कहा हे श्वेतकेतु ! जिस प्रकारसे मरकर प्रजाएं परलोकको जाती है, क्या तू उसे जानता है? उसने कहा भगवन् ! मै नही जानता । राजाने कहा- जिस प्रकारसे प्रजाएं पुनः जन्म लेती है क्या तू उसे जानता है ? उसने कहा -- भगवन् ! मै नही जानता । राजाने पूछा- क्या तू देवयान और पितृयानके मार्गोंकी विभिन्नताको जानता है ? उसने कहा भगवन् ! मैं नहीं जानता । उसके बाद राजाने फिर पूछा - जिस प्रकार यह लोक और परलोक कभी जीवोंसे नहीं भरता, क्या तू उसे जानता है ? उसने कहा भगवन् ! में नहीं जानता । राजाने फिर पूछा -- जिस प्रकार गर्भाधानमें पुरुषाकृति बन जाती है—क्या तू उसे जानता है? उसने कहा भगवन् ! मै नहीं जानता ।
तदनन्तर राजाने कहा- जो मनुष्य इन प्रश्नोंका ३. छन्दो० उप० ५-३ वृह० उप० ६-२