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भारतमें श्रात्मविद्याकी अटूट धारा
(बाबू जयभगवानजी एडवोकेट) ब्रह्मजिज्ञासा
के सहारे जीता है, किसके सहारे बढ़ता है ? कौन इसका जन्मेजयकी मुत्युके बाद जब उत्तरके नागवंशी विषाता है। कौन इसका अधिष्ठाता है? कौन इसे सुखक्षत्रियोंके आये दिनके हमलोंने कृषक्षेत्रके कौरवोंकी इस रूप वर्ताता है? कौन इसे मारता और जिवाता है?" राष्ट्रीय सत्ताको छिन्न भिन्न कर दिया और सप्तसिंघ देश अब ऋक्, यजु, साम, अथर्व, वैदिक संहिताएं और शिक्षा, व मध्यदेशमें पुनः भारतके नागराज घरानोंने अपनी
कल्प, निरुक्त, छंद, व्याकरण, ज्योतिष सम्बन्धी पड़ांग अपनी राष्ट्रीय स्वतन्त्रताको प्राप्त किया, तो कौरववंशकी
विद्याएं, जिन्हें वे अमूल्म निषिजानकर परम्परासे पढ़ते संरक्षताके अभावमें वैदिक संस्कृतिको बहुत धक्का पहुंचा।
और पढ़ाते चले आये थे, उनको अपस अर्थात् मामूली पान्धारसे लेकर विवेह तक समस्त उत्तर भारतमें पहलेके
लौकिक विद्याएं भासने लगी। अब धन और सुवर्ण, पाय समान पुनः श्रमण-संस्कृतिका उभार हो गया। इसी ऐति
और घोड़े, पुत्र और पौत्र, खेत और जमीन, राज्य व अन्य हासिक स्थितिकी ओर संकेत करते हुए हिंदू पुराणकारोंने
लौकिक सम्पदाएं जिनकी प्राप्तिके लिये, रक्षा तथा वृद्धिलिखा है कि भारतका प्राचीन धर्म को सतयुगसे हारी रहला
के लिये, वे निरन्तर इंद्र और अग्निसे प्रार्थनाएं किया करते चला आया है, तप और योग साधना है। प्रेता युगमें सबसे
थे, उनकी दृष्टिमें सब हेय और तुच्छ और सारहीन वस्तु पहले यज्ञोंका विधान हुआ द्वापर में इनका ह्रास होना शुरू
दिखाई देने लगी। अब उनके लिये आत्मविद्या ही परम हो गया और कलियुगमें जमका नाम भी शेषन रहेगा।
विद्या बन गयी। आत्मा ही देखने और जानने और मनन पुनः मनुस्मृतिकारने लिखा है कि सतयुगका मानवीधर्म
करने योग्य परम सत्य हो गया ।। तप है, वेताका ज्ञान है, द्वापरका यच है और कलियुग
अब उन्हें भासने लगा कि "यज्ञयाज आदि श्रीतकार्य का दान है।
संसार बन्धनतकका कारण है, और ज्ञान मुक्तिका कारण है, इस तरह शुरू-शुरूके राष्ट्रिक संघर्षों और सांस्कृतिक
कर्म करनेसे जीव बारबार जन्ममरणके चक्करमें पड़ता वैमनस्योंसे ऊब कर जब वैदिकऋषियोंका ध्यान भारत
रहता है, परन्तु ज्ञानके प्रभावसे वह संसारसागरसे उभर की आध्यात्मिक संस्कृतिकी ओर गया, तो वे उसके उच्च.
कर अक्षय परमात्मपदको पा लेता है। नासमझ आदमी ही आदर्श, गम्भीर विचार, संयमीजीवन और त्यागमयी साधना
इन कर्मोकी प्रशसा करते हैं, इससे उन्हें बार-बार शरीर मार्गसे ऐसे आनन्दविभोर हुए कि उनमें आत्मज्ञानके लिये
धारण करना पड़ता है।" एक अदस्य-जिज्ञासाकी लहर जाग उठी है। अब उन्हें ४. किं कारणं ब्रह्म कुतः स्य जाता जीवाय केन वन जीवन और मृत्युकी समस्याए विकल करने लगी। अब संप्रतिष्ठाः ।अधिष्ठिताः केन सुनेतरेषु कामहे उनके मानसिक व्योममें प्रश्न उठने लगे-ब्रह्म अर्थात् ब्रह्मविदो व्यवस्थाम् ॥ -श्वेताश्वर, उप० १,१ जीवात्मा क्या वस्तु है ? इसका क्या कारण है ? यह जन्म ५, तत्रापरा ऋग्वेदो यजुर्वेदः सामवेद: शिक्षा-कल्पसमय कहांसे आता है ? यह मृत्यु-समय कहां चला जाता है ? व्याकरणं । निरुक्तं छंदो ज्योतिषमिति अथ कौन इसका आधार है ? कौन इसकी प्रतिष्ठा है? यह किस
परामया तदक्षरमधिगम्यते ॥
-मुंडक उप,१.१.५ १. महाभारत-शान्तिपर्व-अध्याय ३३५
६. आत्मा वा अरे द्रष्टव्यः श्रोतव्यो मन्तव्यो लिद्वि२. तपः परं कृतयुगे त्रेतायां ज्ञानमुच्यते ।
ध्यासितक्यः । द्वापरे यज्ञमेवाहुनमेकं कलौ युगे।
पह, उप० २,४.५ मनुस्मृति१,८६ ७. मुण्डक समय १२,७। महाभारत शान्तिमाई यध्याय ३. "अथातो ब्रह्म-जिज्ञासा" ह्यसूक,१.१.१.
२४१-५-१०