________________
२५४
बनेकान्त
आधारसे आचार्य कुन्दकुन्दका समय विक्रमकी ५ वी एक एक आचार्यका समय कमसे कम पच्चीस वर्षका माना शताब्दीमें होनेकी जो कल्पनाकी है वह प्रमाण शून्य और जावे तो इन छह आचार्यों का समय १५० वर्ष होता है। ऐतिहासिक तथ्यसे हीन है। इस प्रकारको निरर्थक कल्पनाओं ताम्रपत्रमें जिन गुणचन्द्राचार्यका उल्लेख किया गया से ही इतिहासका गला घोंटा जाता है।
है वे आचार्य कुन्दकुन्दके साक्षात् शिष्य नही थे किन्तु गुरुपरम्परा और समय
उनके अन्वयमें (वशमें) हुए हैं। यदि उस अन्वयको ___आचार्य कुन्द कुन्दने अपनी कोई परम्परा नहीं दी
लोकमें प्रतिष्ठित होनेका समय कमसेकम ५० वर्ष
और अधिकसे अधिक १०० वर्ष मान लिया जाय, और न अपने ग्रंथों में उनका रचना काल ही दिया है । किन्तु
जो अधिक नही है तो ऐसी स्थितिमें उक्त ताम्रपत्रसे कुन्दबोष प्राभूत की ६१ नं. को गाथामें अपनेको भद्रबाहुका शिष्य सूचित किया है' और ६२ नं० की गाथ में भद्रबाहु
कुन्द का समय २०० वर्ष पूर्वका हो जाता है अर्थात् शक सं० श्रतकेवलोका परिचय देते हुए उन्हें अपना गमक गुरु बत
१८० के करीब पहुंच जाता है।
पट्टावलियोंकी प्राचीन परम्परा भी उन्हें ईस्वी सन् से लाया है। और लिखा है कि जिनेन्द्र भगवान महावीरने
पूर्व पहली शताब्दी के मध्य भागमें रखती है । यदि तामिल अर्थ रूपसे जो कुछ कथन किया है वह भाषा-सूत्रोंमें शब्द
वेद (कुरल काव्य) के कर्ता एलाचार्य और कुन्दकुन्द दोनों विकारको प्राप्त हुआ है-अनेक प्रकारके शब्दोंमें गूंथा गया
एकही व्यक्ति हो तो कुन्दकुन्दका समय ईसाकी प्रथम है। उसे भद्रवाहुके मुझ शिष्यने उन भाषा-सूत्रों परसे उसी
शताब्दीका प्रारम्भिक भाग हो सकता है। रूपमें जानकर कथन किया है।
इससे स्पष्ट है कि बोधप्रभुतके रचयिता कुन्दकुन्दाचार्य ग्रन्थ रचना भद्रबाहुके शिष्य जान पड़ते है और ये भद्रबाहु श्रुतके- आचार्य कुन्दकुन्द ८४ पाहुड ग्रंथोके कर्ता माने जाते है। वलीसे भिन्न ही ज्ञात होते है। जिन्हें प्राचीन ग्रंथोंमें परन्तु इस समय उनकी वे सभी रचनाएं उपलब्ध नही है, आचारांग नामक प्रथम अगके धारकोंमें तृतीय विद्वान किन्तु उनकी २१ या २२ रचनाएं जरूर उपलब्ध है जो सब बतलाया गया है । और जिनका समय जैन कालगणनाके हिन्दी और सस्कृत टीकाओंके साथ प्रकाशित हो चुकी है अनुसार वीर नि० सं० ६१२ और वि० सं० १४२ से पूर्व कुंदकुन्दाचार्य के ये ग्रंथ बड़े ही महत्वपूर्ण है। इनमें आध्यात्मिक वर्ती हो सकता है, परन्तु उससे पीछे का नहीं मालम होता; दृष्टिसे आत्मतत्त्वका विशद विवेचन किया गया है। उक्त क्योंकि भद्रबाहु श्रुतकेवलीके समयमें जिन कथित श्रुतमें मुनिपुगवकी कथनशैली बड़ी ही परिमाजित, संक्षिप्त, ऐसा कोई विकार उपस्थित नही हुआ था जो उक्त गाथामें सरल और अर्थ गौरवको लिये हुये है। जैन समाजमें इनके --"सद्दवियारो हो भासासुत्तेसु जंजिणे कहियं" इन ग्रंथ रत्नोंकी बड़ी भारी प्रतिष्ठा है, क्योंकि वे यथार्थ वस्तुवाक्यों द्वारा उल्लिखित हुआ है । वह उस समय अवछिन्न- तत्त्वके निर्देशक है और आध्यात्मिकताकी सरस एव गंभीरपुटरूपसे चल रहा था, परन्तु द्वितीय भद्रबाहुके समयमें उसकी से अलंकृत है। उनकी आध्यात्मिक तत्त्व विवेचना गम्भीर वह स्थिति नही रही, उस समय कितनाही श्रुतशान लुप्त तथा तलस्पर्शिनी है-वह जैनधर्मके मूलतत्त्वोंका मार्मिक हो चुका था।
विवेचन करती है । इन्ही सब कारणोंसे आचार्य कुन्द कुन्दमर्कराके ताम्रपत्र में जो शक संवत् ३८८ का उत्कीर्ण की रचनाएं जैन साहित्यमें अपना महत्वपूर्ण स्थान रखती हुआ है और जिसमें कुन्दकुन्दान्वय देशीगणके छह आचार्यों है। और वे प्रवचनसारादि अथ महाराष्ट्रीय प्राकृतमें रचे का गुरुशिष्यक्रमसे उल्लेख किया गया है। उनमें से यदि
नामधेयदत्तस्य देशीगण कोण्डकुन्दान्वय-गुणचन्द १. सहवियारो हूओ भासासुत्तेसु जं जिणे कहियं । भट्टार (प्र) शिष्यस्य अभयणंदिभट्टार तस्य शिष्य
सो तह कहिये बायं सीसेण य भद्दबाहुस्स ॥६॥ शीलभद्र भट्टार शिष्यस्य-जनाणंदि भट्टारशिष्यस्य २. बारस अंग वियाणं चउदस पुव्वंग विउल वित्थरणं। गुणणदिभट्टारशिष्यस्य चन्द्रणदि भट्टार्गे अष्ट__ सुयणाणि भद्दवाहू गमयगुरू भयो जयजो ॥२॥ शीतित्रयोशतस्य संवत्सरस्य माघमास ........। ३. श्रीमान् कोंगणिमहाराजाधिराज -अविनीत -देखो कुर्ग इन्स कृप्शन्स ।