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श्रीकुनाकुन्दाचार्य
मा। आचार्य कुन्दकुन्दने आत्मानुभवकी उस विमल सरिनामें पथिक बन जाता है और अन्तिम परमात्म बस्थाकी निमग्न होकर भी, संसारी जीवोंकी उस आत्मरसशून्य साधनामें तन्मय हुआ अबसर पाकर उस कर्म-संबछाको अनात्मरूप मिथ्यापरिणतिका परिशात किया । साथ ही, नष्ट कर देता है-आत्म-समाधिस्पचित्तकी एकामपरिणतिचाह-दाह रूप दुःख दावानलसे झुलसित आत्माका अवलोकन स्वरूप ध्यानाग्निसे उसे भस्म कर अपनी अनन्त चतुष्टयकर उनका चित्त परम करुणासे आई हो गया और उनके रूप आत्मनिधिको पा लेता है। समुद्धारकी कल्याणकारी पावन भावनाने जोर पकड़ा, आचार्य कुन्दकुन्दकी देन अतः उन्होने स्व-परके भेद विज्ञानरूप आत्मानुभषके बलसे
आचार्य कुन्दकुन्दने जिस बात्माके विध्यकी कलामा उस आत्मतत्वका रहस्य समझाने एवं आत्मस्वरूपका बोध
की है और उसके स्वरूपका निदर्शन करते हुए उसकी महत्ता कराने के लिये 'सारत्रय' जैसी महत्त्वपूर्ण कृतियोंका निर्माण
एवं उसके अन्तिम लक्ष्य प्राप्तिकी जो सूचना की है उसके किया। और उनमें जीव और अजीवके संयोग सम्बन्धसे होने
अनुसार प्रवृत्ति करनेवाला व्यक्ति अपने चरम लक्ष्यको बाली विविध परिणतियोका-कर्मोदयसे प्राप्त विचित्र
प्राप्त करने में समर्थ हो जाता है। प्राचार्य कुन्दकुन्दकी उस अवस्थाओंका-उल्लेख किया और बतलाया कि:
देनको उनके बादके आचार्योंने अपने अपने संयोमें मात्माहे आत्मन् ! पर द्रव्यके संयोगसे होनेवाली परिणतियां के विध्यकी चर्चा की है और बहिरात्म अवस्थाको छोड़कर तेरी नही है और न तू उनका कर्ता हर्ता है वे सब राग-द्वेष तथा अन्तरात्मा बनकर परमात्मअवस्थाके साधनका मोहरूप विभाव परिणतिका फल है । तेरा स्वभाव ज्ञाता उल्लेख किया है। द्रष्टा है, परमें आत्मकल्पना करना तेरा स्वभाव नही है। इस तरह भारतीय श्रमण परम्पराने भारतको सच्चिदानन्द है तू अपने उस निजानन्द स्वरूपका भोक्ता वन, उस अध्यात्मविद्याका अनुपम आदर्श दिया है । इसीसे उस आत्मस्वरूपका भोक्ता बननेके लिये तुझे अपने स्वरूपका भ्रमण परम्पराकी अनेक महत्वपूर्ण बातें वैदिक परम्पराके परिज्ञान होना आवश्यक है, तभी तेरा अनादिकालीन ग्रंयोमें पाई जाती है । और वैदिक परम्पराकी अनेक कविमिथ्या वासनासे छुटकारा हो सकता है।
सम्मत बातें घमण परम्पराके आचार-विचारमें समाई हुई इस आत्माकी तीन अवस्थाएं अथवा परिणतियां है बहि- दृष्टिगोचर होती है, क्योकि दोनों संस्कृतियोंके सम-सामयिक रात्मा, अन्तरात्मा और परमात्मा। इनमेंसे यह आत्मा प्रथम होनेके नाते एक दूसरी परम्पराके आचार-विचारोंका अवस्थामें इतना रागी हो गया है कि यह अनादिसे अपनी परस्परमें आदान-प्रदान हुआ है। यही कारण है कि आचार्य ज्ञान दर्शनादिरूप आत्मनिधिको भूल रहा है और पर अचेतन कुन्दकुन्दके प्रायः समान अथवा उससे मिलते-जुलते रूपमें (जड़) शरीरादि वस्तुओमे अपने आत्मस्वरूपकी कल्पना आत्माके विध्यकी कल्पनाका बह रूप कठोपनिषदके करता हुआ चतुर्गतिरूप संसारमें परिभ्रमण कर असह्य निम्न पद्यमें पाया जाता है जिसमें आत्माके मामात्मा एवं घोर वेदनाका अनुभव कर रहा है, वह दुःख नहीं सहा
महदात्मा और शांतात्मा ये तीन भेद किये गये है। जाता, किन्तु अपने द्वारा उपार्जित कर्मका फल भोगे बिना यच्छेवाङ्मनसीप्राज्ञस्तयच्छेज्जानमात्मनि । नही छूट सकता, इसीसे उसे विलाप करता हुआ सहता है। ज्ञान मात्मनि महति नियच्छे तद्यच्छेच्छान्त आत्मनि ।। जीवकी यह प्रथम अवस्था ही संसार दुःखकी जनक है, छान्दयोग उपनिषद् में जो आत्म-भेदोंका उल्लेख किया यही वह अज्ञानधारा है जिससे छुटकारा मिलते ही आत्मा गया है । उसके आधारपर डायसनने भी आत्माके तीन भेद अपने स्वरूपका अनुभव करने में समर्थ हो जाता है । आत्मा- किये है शरीरात्मा, जीवात्मा और परमात्मा । इस तरह की यह दूसरी अवस्था है जिसे अन्तरात्मा कहते है, वह आत्म- यह आत्म विध्यकी चर्चा अपनी महत्ताको लिये हुए है। शानी होता है-उसे स्वस्वरूप और पररूपका अनुभव परन्तु श्वेताम्बर मुनि श्री कल्याण विजयजीने 'श्रमण होता है, वह स्व-परके भेदज्ञान द्वारा भूली उस आत्मनिधि- भगवान महावीर' नामकी अपनी पुस्तकमे आत्माके का दर्शन पाकर निर्मल आत्म-समाधिके रसमें तन्मय हो त्रैविध्यकी कल्पनाको विक्रमकी पांचवीं शताब्दीकी जाता है और सदृष्टिके विमल प्रकाश द्वारा मोक्ष मार्गका घोषित करते हुए बिना किसी प्रामाणिक उल्लेख के उसके