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अनेकान्त
रहनेपर भी उनका चित्त कभी विकृत नही होता था; वे समदर्शी श्रमण जब गुप्तिरूप प्रवृत्तिमें असमर्थ हो जाते थे तब समिति में सावधानीसे प्रवृत्त होते थे। क्योंकि उस समय भी वे अपने उपयोगकी स्थिरताके कारण शुद्धोपयोगरूप संयमके संरक्षक थे, इसलिये समिति रूप प्रवृत्तिमें सावधान साधुके बाह्यमें कदाचित् किसी दूसरे जीवका घात हो जानेपर भी वह प्रमत्तयोगके अभाव में हिंसक नहीं कहलाता ; क्योंकि शुभोपयोग प्रवृत्ति संयमका घात करने वाली अन्तरंग हिंसा ही है, उससे ही बन्ध होता है, कोरी द्रव्य हिंसा हिंसा नही कहलाती; किंतु अयत्नाचाररूप प्रवृत्ति करनेवाला साधु रागादिभाव के कारण षट्कायके जीवोंका विराधक होता हैं । परन्तु जो अपनी प्रवृत्ति में सावधान है - रागादिभावसे उसकी प्रवृत्ति अनुरंजित नही है तब उसकी हलन चलनादि क्रियाओंसे जीवको विराधना होनेपर भी वह हिंसक नही कहलाता --- वह जलमें कमलकी तरह उस कर्मबन्धनसे निर्लेप रहता है- शुद्धोपयोगरूप अहिंसक भावनाके बलसे उसका अन्तःसमय सर्वथा अक्षुण्ण बना रहता है ।
निर्जन स्थानों में निवास
इस तरह महामुनि कुन्दकुन्द नगरसे बाह्य उद्यानो, दुर्गम अटवियों, सघन वनों, तरु कोटरों, नदी पुलिनों, गिरिशिखरों, पार्वतीय कन्दराओं में तथा स्मशान भूमियों ( मरघटों) में निवास करते थे, जहां अनेक हिंस्र जाति-विरोधी जीवोका निवास रहता था। शीत उष्ण डांस, मच्छर आदिकी अनेक असह्य वेदनाओंको सहते हुए भी अपने चिदानन्दस्वरूपसे जरा भी विचलित नहीं होते थे । सब क्रियाओं में प्रवृत होते हुए भी वे महामुनि अपने ज्ञान दर्शन -चारित्र रूप आत्मगुणों में स्थिर रहने के लिये एकान्त प्राशुक स्थानोमें आत्म-समाधिके द्वारा उस निजानन्दरूप परमपीयूषका पान करते हुए आत्म-विभोर हो उठते थे। परन्तु जब समाधिको छोड़कर संसारस्य जीवोंके दुःखों और उनकी उच्च नीच प्रवृत्तियोंका विचार करते, उसी समय उनके हृदयमें एक प्रकारकी टीस एव वेदना उत्पन्न होती थी, अथवा दयाका स्रोत बाहर निकलता था ।
१. सुष्णहरे तरुहिट्ठे उज्जाणे तह मसाण बासे वा । गिरि-ह- गिरिसिहरे वा भीमवणे अहव वसिते वा । ४२ --बोभप्राभृत
[ वर्ष ११
चारणऋद्धि और विदेह गमन
इस तरह सम्यक्तपके अनुष्ठानसे आचार्य कुन्दकुन्दको चारणऋद्धिकी प्राप्ति हो गई थी जिसके फलस्वरूप वे पृथ्वीसे चार अंगुल ऊपर अन्तरिक्ष में चला करते थे * आचार्य देवसेन के 'दर्शनसार' से मालूम होता है कि आचार्य कुन्दकुन्द विदेहक्षेत्र में सीमंधर स्वामीके समवसरण में गए थे और वहां जाकर उन्होंने उनकी दिव्य ध्वनि द्वारा आत्मतत्वरूपी सुघारसका साक्षात् पान किया था और वहांसे लौट कर उन्होंने मुनिजनोके हितका मार्ग बतलाया था । *
श्रवणबेलगोलाके शिलालेखोंसे तो यह भी ज्ञात होता है कि उन्होंने चारण ऋद्धिकी प्राप्तिके साथ, भरतक्षेत्रमें श्रुतकी प्रतिष्ठा की थी- उन्होंने उसे समुन्नत बनाया था इसमें कोई सन्देह नही कि जब तपश्चरणकी महत्तासे आत्मासे निगड कर्मका बन्धन भी नष्ट हो जाता है तब उसके प्रभावसे यदि उन्हें चारणऋद्धिकी प्राप्ति हो गई हो, इसमें Rainी कोई बात नही है; क्योकि कुंदकुन्द महामुनिराज थे, अतः उन जैसे असाधारण व्यक्ति के सम्बन्ध में जिस घटनाका उल्लेख किया गया है उसमे सन्देहका कोई कारण नही है और देवसेनाचार्यके उल्लेखसे इतना तो स्पष्ट ही है कि विक्रम स० ९९० मे उनके सम्बन्ध में उक्त घटनाके उल्लेख प्रचलित थे । अध्यात्मवाद और आत्माका विध्य
अध्यात्मवाद वह निर्विकल्प रसायन है जिसके सेवन अथवा पानसे आत्मा अपने स्वानुभवरूप आत्मरसमें लीन हो जाता है, और जो आत्मसुधारसकी निर्मल धाराका जनक है । जिसकी प्राप्तिसे आत्मा उस आत्मानन्दमे निमग्न हो जाता है, जिसके लिये वह चिरकालसे उत्कंठित हो रहा
२. रजोभिरस्पष्ट तमत्वमन्तर्बाह्येऽपि स व्यंजयितु यतीशः रजः पदं भूमितलं विहाय चचार मम्ये चतुरंगुलं सः ॥ -श्रवणबेलगोल. लेख नं० १०५ ३. जह पउमणदिणाहो सीमंधरसामि दिव्वणाणेण । ण वि बोहइ तो समणा कहं सुभग्ग पयाणति दर्शनसार
४. वंद्य विभुर्भुवि न कैरिह कौण्डकुन्दः, कुन्दप्रभाप्रणविकीर्ति विभूषिताशः ।
यश्चारु-चारण-कराम्बुजचञ्चरीकश्चक्रे श्रुतस्य भरते प्रयतः प्रतिष्ठाम् ॥श्र० लेख नं० ५४