________________
श्री कुन्दकुन्दाचार्य
( पं० परमानन्द जैन शास्त्री)
भारतीय जैन श्रमण परम्परामें आचार्यश्री कुन्दकुन्दका नाम खास तौरसे उल्लेखनीय है । वे उस परम्पराके केबल प्रवर्तक आचार्य हो नहीं थे किंतु उन्होंने आध्यात्मिक योग शक्तिका विकास कर अध्यात्म विद्याकी उस अविच्छिन्न धाराको जन्म दिया था, जिसकी निष्ठा एवं अनुभूति आत्मानन्दको जनक थी और जिसके कारण भारतीय श्रमण परम्पराका यश लोकमें विश्रुत हुआ था ।
श्रमण कुलकमलदिवाकर आचार्य कुन्दकुन्द जैनसंघ परम्पराके प्रधान विद्वान एवं महर्षि थे । वे बड़े भारी तपस्वी थे । क्षमाशील और जैनागमके रहस्यके विशिष्ट ज्ञाता थे । वे मुनि पुंगव रत्नत्रयसे विशिष्ट और संयमनिष्ठ थे। उनकी आत्म-साधना कठोर होते हुए भी दुःख निवृत्तिरूप सुख मार्गकी निदर्शक थी। वे अहंकार ममकाररूप कल्मष भावनासे रहित तो थे ही, साथ ही, उनका व्यक्तित्व असाधारण था । उनकी प्रशान्त एवं यथाजात मुद्रा तथा सौम्य आकृति देखनेसे परम शान्तिका अनुभव होता था । वे आत्म-साधनामें कभी प्रमादी नही होते थे किंतु मोक्ष मार्गको वे साक्षात् प्रतिमूर्ति थे । वास्तवमें कुन्दकुन्द ऋषितुंगव थे। यही कारण है कि 'मगल भगवान वीरों' इत्यादि पद्य में निहित 'मंगलं कुन्दकुन्दार्यो' वाक्यके द्वारा मंगल कार्यो में आपका प्रतिदिन स्मरण किया जाता है। नामका कारण
कुन्दकुन्दका दीक्षा नाम पद्मनन्दी था। वे कौण्डकुण्डपुरके वासी आचार्य थे । अतः उस स्थानके कारण बादको उनकी कौण्डकुन्दाचार्य नामसे प्रसिद्धि हुई थी जो बादको कुन्दकुन्द इस श्रुति मधुर नाममें परिणत हो गया था । और उनका संघ 'कुन्दकुन्दान्वय' के नामसे लोकमें प्रसिद्धिको प्राप्त हुआ और आज भी वह उसी नामसे प्रचारमें आ रहा है । वे मूल संघके अद्वितीय नेता थे । यद्यपि उन्होंने अपनी रचनाओं में अपने सघका कोई उल्लेख नही किया fig उत्तरवर्ती आचार्योंने अपनी गुरुपरम्पराके रूपमें या अन्य प्रकारसे उनकी पवित्र कृतियोंकी मौलिकताके कारण अपने अपने संघको मूल संघ और अपनी परम्पराको 'कुन्दकुन्दान्वय' सूचित किया है। वे ऐसा करनेमें अपना गौरव
समझते थे; क्योकि आचार्य कुन्दकुन्दने भगवान जिनेन्द्र द्वारा उपदिष्ट समीचीन मार्गका अनुपम उपदेश दिया था । साथ ही, उसे अपने जीवनमें उतारकर भरतक्षेत्रमें उस श्रुतकी प्रतिष्ठा की थी । उन्होंने आत्मानुभूतिके द्वारा श्रुतकेवलियों द्वारा प्रदर्शित आत्ममार्गका उद्भावन किया था, जिसे जनता भूल रही थी। यही कारण हैं कि आचार्यकुन्दकुन्द दिगम्बर जैनश्रमणों में प्रधान थे । आपकी आध्यात्मिक कृतियां अपनी सानी नही रखती और वे दिगम्बर श्वेताम्बर दोनों ही सम्प्रदायोंमें समान रूपसे आदरणीय मानी जाती है । आपकी आत्मा कितनी विमल थी और उन्होने कल्मष - परिणति पर किस प्रकार विजय पाई थी, यह उनके तपस्वी जीवनसे सहज ही ज्ञात जाता है । अटल नियम पालक मुनिपुंगव कुन्दकुन्द जैन श्रमण परम्पराके लिये आवश्यकीय मूलगुण और उत्तर गुणोंका पालन करते थे और अनशनादि द्वादश प्रकारके अन्तर्बाह्य तपोका अनुष्ठान करते हुए तपस्वियों में प्रधान महर्षि थे। उन्होंने प्रवचनसारमे जैन श्रमणोके मूलगुण इस प्रकार बतलाये है:वदसमिदिदियरोधो लोचावस्सय मचेलम०हाणं । खिदिसमणमदंतवणं ठिदिभोयण-मेगभत्तं च ॥ एदे खलु मूलगुणा समणाणं जिणवरेहि पण्णत्तं । तेषु पमत्तो समणो छेदोवद्वावगो होदि ॥३-७, ८ 'पांच व्रत, पाच समिति, पाच इंद्रियोका निरोध, केशलोंच, षट् आवश्यक क्रियाएं, अचेलक्य (नग्नता) अस्नान, क्षितिशयन, अदन्त-धावन, स्थिति भोजन और एकभुक्ति ( एकाशन) ये जैन श्रमणोंके अट्ठाईस मूलगुण जिनेंद्र भगवानने कहे है । जो साधु उनके आचरणमे प्रमादी होता है वह छेदोपस्थापक कहलाता है ।” ग्रामों-नगरोंमें ससंघ भ्रमण
वे यथाजात रूपधारी महाश्रमण अनेक ग्रामो, नगरोमे ससंघ भ्रमण करते थे और अनेक राजाओं, महाराजाओं महात्माओं, राजश्रेष्ठियों, श्रावक-श्राविकाओं, और मुनियोंके समूहसे सदा अभिवन्दित थे, परन्तु उनका किसीपर अनुराग और किसीपर विद्वेष न था । विकारी कारणोंके