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मीन-संवाद (जालमें मीन)
वीर का घर नहीं रहा है।
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क्यों मीन ! क्या सोच रहा पड़ा तू?
देखे नहीं मृत्यु समीप आई। बोला तभी दुःख प्रकाशता वो
"सोचूं यही, क्या अपराध मेरा !
संतुष्ट था स्वल्प-विभूतिमें ही,
ईर्षा-घृणा थी नहिं पास मेरे । नहीं दिखाता भय था किसीको,
नहीं जमाता अधिकार कोई॥
म मानवोंको कुछ कष्ट देता,
नहीं चुराता धन्य-धान्य कोई। असत्य बोला नहिं में कभी भी,
कभी तकी ना बनिता पराई॥
विरोधकारी नहिं था किसीका,
निःशस्त्र था, दीन-अनाथ था मैं । स्वच्छन्द पा केलि करूं नवीमें,
रोका मुझे जाल लगा वृथा हो ।