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किरण २]
मीन-संवाद
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(५) खीचा, घसीटा, पटका यहां यों
'मानो न मै चेतन प्राणिकोई ! होता नहीं कुःख मुझे जरा भी।
हूं काष्ठ-पाषाण-समान ऐसा !!"
कैसे भला वे स्व-अधीन होंगे?
स्वराज्य लेंगे जगमें कभी भी? करें पराधीन, सता रहे जो,
हिंसावती होकर दूसरों को !!
(११) भला न होगा जगमें उन्होंका
बुरा विचारा जिनने किसीका! न बुष्कृतोंसे कुछ भीत है जो,
सवा करें निर्वय कर्म ऐसे !!
सुना कर था नर-धर्म ऐसा
'होनाऽपराधी नहिं बंड पाते । न युद्ध होता अविरोधियोंसे,
न योग्य है वे वध कहाते ॥
रवा कर वीर सुदुर्बलों की,
निःशस्त्र शस्त्र नहीं उठाते'। बातें सभी मूठ लगें मुझे वो,
विरुद्ध दे दृश्य यहां दिखाई ॥
(१२) मैं क्या कहूं और, कहा न जाता !
है कंठमें प्राण, न बोल आता !! छुरी चलेगी कुछ देर में हो!
स्वार्यो जनोंको कब ससं आता !!"
(4) या तो विडाल-बत ज्यों कया है,
या यों कहो धर्म नहीं रहा है। पृथ्वी हुई वीर-विहीन सारो,
स्वार्यान्धता फैल रही यहां वा ॥
(१३) यों दिव्य-भाषा सुन मीनको मै,
धिक्कारने खूब लगा स्वलता । हुआ सशोकाकुल और चाहा,
देऊ छुड़ा बंव किसी प्रकार ।।
बेगारको निध प्रया कहें जो,
वे भी करें कार्य जघन्य ऐसे ! आश्चर्य होता यह देख भारी,
'अन्याय-शोकी अनिआयकारी !!
4 मीनने अन्तिम श्वास खींचा!
मैं देखता हाय ! रहा खड़ा ही !! गूंजी ध्वनी अम्बर-लोकमें यों--
'हा! बोरका धर्म नहीं रहा है !!'
--युगवीर