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________________ क्या यही विश्वधर्म है ? (बा० अनन्तप्रसाद जैन B. Sc. Eng. 'लोकपाल') जैनधर्मके हिमायती हम जैनी गला फाड-फाड कर तरीकोसे उनके सामने रखा जाये । पर यह करे कौन ? यह चिल्लाते है कि हमाग धर्म 'विश्वधर्म' है और इसे सभी ममला जरा टेढा पडता है । कग्नेके लिये यदि कोई आगे भी ग्रहण कर सकते है । पर कथनी और करनीमे बडा भारी आता है तो प्रतिक्रियावादी लोग उसे प्रगतिशीलता कहअन्तर है। एक पूर्वको जाता है तो दूमग पश्चिमको। माधा- कहके इतना कडा विरोध उठाते है कि जो लोग सहायता एवं रण जैन तो जानते ही नहीं कि धर्म क्या है-अमली धर्म क्या महयोग देना भी चाहते है वे भी डर जाते है । समाज आज है और जैन धर्म क्या है ? वे तो केवल पानी छानकर पीना, धनी मेठोके हाथमे है, जो अधिकतर केवल खुशामदमे ही रातमे न खाना, और किसी तरह मदिर घूम आना या किसी खुश होते और नामके लिये ही रुपये देते है। मच्चे धर्मकी मुनिका दर्शन, भोजन और केशलोच देव लेना इसे ही धर्म- लगन और श्रद्धा तो थोडोमे ही मिलेगी। का अन्त मान बैठे है। हमारे अधिकार पडित कहे जान अब युग बदल गया है। जमाना बड़ी तेजीमे बदल रहा वालोकी दशा तो और भी बुरी है। इन पडितोने छूआछूनका है। जो व्यक्नि ममयके अनुकूल अपना आचरण नही बनाभेद इतना बढ़ा रखा है कि जिमने जैन धर्मको विश्वधर्म क्या वेगा उसकेलिये आनेवाले ममार या निकट भविष्यकालमें देशधर्म भी होनेके दावेमे च्युत कर रग्वा है । उमपर भी कोई स्थान नही मिल सकेगा। वही बात जैन-ममाजके साथ धर्मान्धता इतनी प्रबल है कि बजाय लज्जित होनेके ये ज्ञानके भी पूर्ण रूपमे लाग है । यदि ममाजमे उपयुक्न चेतना नही अभिमान और पाडित्यके गर्वमे 'अनेकान्ल' का गला मगेड आई, समाजके धनियोने अपना पुराना रवैया छोडकर आधुउसकी ठठरीपर इस तरह अकड़कर गान बघाग्ने है कि जैसे निक विकासके मामने आखे नही खोली तो फिर "जैन" साग पुरुषार्थ और धर्म-लाभ इन्हीके हिम्मे पड़ा है-बाकी गब्दके लिये ही खतग उपस्थित हो जायेगा। धनियोको गय किसीको धर्मके बारेमे कुछ कहनेका कोई हक नही । यदि कोई देनेवाले हमारे पडित है और हमारे पडितोका पालनपोषण टीकाटिप्पणी करनेकी हिम्मत करता है तो ये पडिन नाम- सरक्षण करनेवाले ये ममाजकी बागडोर अपने हाथोमे मजधारी लोग उसके पीछे हाथ धोकर पड जाते है। बतीमे पकड़े रहनवाल धनी लोग है । कमूर किमका है, कहना ___ एक जमाना था जब धार्मिक पुस्तकोको छपाकर प्रकाशन कठिन है । पर अज्ञान या कुज्ञान और दूसरोकी देखादेखी करनेका इन लोगो अथवा इनके पुरुषाओने तीव्र विरोध किया या होडा-होडीमे धर्म नामकी वस्तु के बारेमे कोई आलोचना था, पर आज ये ही उसमे लाभ उठाकर मैकडो-हजागेकी या युग-धर्म अथवा ममयकी मागोके अनुसार उमे नये ढगमे मख्यामे जल्दी-जल्दी पडित होरहे हैं । विदेशयात्रा भी अब मगठित करना यह इन्हे एकदम ही अप्रिय है । अनेकानका पापके बजाय पुण्य कार्य समझा जाने लगा है। पर हमारे अपनेको एकाधिकारी मानने वाले उसमे कोसो दूर रहते है। कुछ पंडित अब भी अजैनोमे जैन धर्म-प्रचारका इस कट्ट- यही कारण है जहा तर्क असफल होकर हठधर्मोको जगह रतासे विरोध करते है कि यदि भगवान तीर्थकर सिद्धिशिला दे देता है। पर नही रहते, दूसरे देवोकी तरह कही स्वर्गमें रहते होते हर मानव स्वभावमे ही अपनी रुचि और भावनाके तो वे भी शर्मा जाने। भारतमे तो जनधर्मका प्रचार अजैनो- अनुसार गुरु या पंडित पसंद करता है। एक गाजा-भांग में होना जरा कठिन बान है पर विदेशोमें जहा ज्ञानकी पिपासा पीनेवाला वैमे ही गुरुकी अभ्यर्थना और बडाई करेगा, एक इतनी बढ़ गई है कि वे कुछ भी पाकर उसपर टूट पडनेको छूआछूतको माननेवाला ऐसे ही मुनि-पडितकी प्रशसाके तयारहै वहां जैनधर्म जैसे वैज्ञानिक,अनेकान्तिक एव तर्क-बुद्धि- पुल बांध देगा जो सबसे अधिक छूतछातका भेदभाव स्वय युक्त सिद्धांतों और फिलोसफीसे ओतप्रोत धर्मको तो वे बड़ी रखता हो और दूसरोको रखनेके लिये प्रेरित करता हो। प्रसन्नतासे ग्रहण कर सकते है, यदि इसे उचित रूपसे नये तौर- एक लालची व्यक्ति उसी गुरुको पसंद करेगा जिसके कारण
SR No.538011
Book TitleAnekant 1952 Book 11 Ank 01 to 12
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJugalkishor Mukhtar
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year1952
Total Pages484
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Anekant, & India
File Size29 MB
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