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किरण २]
उसके साथ रहते हुए किसी प्रकार उसे कुछ अर्थ लाभ हो जाये इत्यादि । हमारे धर्ममे भी यही बात घुस गई है। घुम गई क्या, बड़ी जोरदार हो गई है। जब में सुनता हूं कि एक "समदर्शी" कहलाने वाला मुनि किसीको ऊंच किसीको नीच कहकर समाजको या जन-साधारणको धर्मके नामपर अधर्मकी वृद्धि कराता है तो मुझे अत्यन्त दुख होता है और हमारे अपने धार्मिक पतन पर क्षोभ होता है। साथ ही ऐसा मानने मा करनेवालोकी हठधर्मी या हिंसात्मक प्रवृति देखकर निराशा भी होती है ।
क्या यही 'ममतामय' जैनधर्म है जो 'विश्वधर्म होनेका दावा करता है? जो पतितोको और जबरदस्ती पतित बनानेका फतवा दे ? वह धर्म तो नही हो सकता --हा, धर्मके विपरीत जो कुछ कहा जाये वह अलवना हो सकता है । भगवान तीर्थंकरने जन्ममे किसीको नीच या ऊच नही माना है, न किसीसे घृणा करने को ही मिखलाया है। फिर ऐसा करना तो सीधा-सादा तीर्थंकरका और उनकी पवित्र वाणीका अपमान करना है । अर्थका अनर्थ लगानेवाले तो बहुत मिलेंगे। और इसी कारण आज भारतमे मत-मतान्तरोकी कमी नही । पर जहां दूसरे धर्मावलम्बी आपसके विभेदोंको दूर कर अब एकता लानेकी चेष्टा कररहे है वहा हमारे समाजमें एकताकी जगह 'अनेकता' ही बढती दीखती है ।
जब हम समझते हैं और मानते है कि जैनधर्म ही ऐसा मच्या तर्कगगन और बुद्धिपूर्ण धर्म है कि जिनसे हर प्राणीका कल्याण हो सकता है तो हमारा सबसे पहला कर्त्तव्य होना चाहिये था कि हम इसका प्रकाश उन लोगो तक भी पहुँचावे जिन्हें इसकी सबसे अधिक जरूरत है । पर हमारी मारी चेष्टायें ठीक इसके विपरीत होती है। क्या ही दयनीय हालत है।
नया यही विश्वधर्म है
एक 'विश्व जैन मिशन' नामकी मस्थाने कुछ कार्य करना आरंभ किया है । और कुछ ठीक रास्तेकी तरफ कदम बढ़ाया है। Voice of Ahinsa नामकी पत्रिका निकालकर उसने एक बहुत बड़ी कमीकी पूर्ति भी की है। पर उसकी रिपोर्टसि यही पता चलता है कि अभी तक उसे समाजके अग्रणी पंडितों एवं प्रमुख धनियोंसे सहायता या सहयोग प्राप्त नही हुआ है। यह एक ही बात समाजके वर्तमान रुखकी दिशाका अच्छा बोध कराती है । लोग शायद अब भी यही समझते हैं कि धर्मको अंग्रेजों, यूरोपियनों और अमेरिकनो वगैरहमें प्रचार करनेसे वह अपवित्र हो जायेगा। कुछ भी हो,
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ऐसे उत्तम एव परमावश्यक कार्यमे उत्साहका न दिखलाई देना बडा ही हानिकारक है ।
आज, जब मारा मसार मारकाट, रक्तपात, युद्ध और बमोकी भयकरतामे घबडा गया है और शांति चाहता है, जैनधर्म और उसके सिद्धातोका व्यापक प्रचार अत्यावश्यक था। अपनी रक्षा, धर्म या समाजकी रक्षा भी मसारकी रक्षा द्वारा ही हो सकती है। हम ससारके भीतर ही है बाहर नही । ससार दुखपूर्ण रहेगा. आकुलित-अव्यवस्थित या अशांत रहेगा तो हमारा जीवन भी वैसा ही बनेगा- भले ही इसे हम जान सकें या न जान सके। वर्तमान युग प्रचारका युग है। जैन तन्वोमे इतनी वैज्ञानिकता कूट-कूट कर भरी है कि यदि उनका आधुनिक रूपये स्वतंत्र प्रतिपादन हो तो विश्व पर बड़ा भारी प्रभाव पड़ सकता है। पश्चिमवाले किसी बातको तर्कपूर्ण होनेपर सुनना, समझना और जानना चाहते है । हमारे जैमी हठधर्मो यद्यपि वहा भी हैं पर अनुपानमें बहुत कम है। विद्या वहा कई गुनी है जहा विद्या हो, विद्याका अनुराग हो, मध्ये ज्ञानकी भूख ही नही तो जैनमिद्धानोका उपदेश, प्रचार या व्याख्यान काम कर सकता है और वही होना चाहिये। पश्चिममे प्रचारके लिये अग्रेजी भाषा एक सबसे ज़बरदस्त साधन है, इसका व्यवहार करना ही होगाऔर अधिकसे अधिक जितना संभव हो सके। में तो इतना कहना चाहता ह कि यदि वर्तमान कालमे तीर्थंकर हो तो वे भी बगैर पश्चिमी भाषा ( International Language) मानकर अग्रेजी जाने बिना और आधुनिक विज्ञानोकी जानकारीके बिना पूर्ण ज्ञान और नीर्थंकरत्व नही प्राप्त कर मकते स्वर्गीय पूज्य ब्रह्मचारी शीतलप्रसाद जी, पूज्य चम्पतराय जी एव पूज्य जे एल जैनीनं अपने समय में अपनी शक्ति भर जोर लगाया, पर समाजन उन्हें सफल नही होने दिया। वे तो चले ही गये, उनके ट्रस्ट भी जो है उनके ट्रस्टी लोग भी उनको हार्दिक आकाओको पूर्ण करनं प्रयत्नशील नही दीखते । वे लोग अगरेजी के द्वारा जैनधर्मका व्यापक विस्तार करना या कमसे कम इसकी जानकारी और सर्वप्रियता विदेशांमे बढ़ाना चाहते थे । अब तो हमारे लिये स्वर्ण सुयोग उपस्थित है । मदिगे और मूर्तियोकी संख्या हमारे यहां इस समय जरूरत से ज्यादा हो गई है। अब तो धनका सदुपयोग एवं धर्मवृद्धिका आयोजन इसी व्यवस्था और मार्ग द्वारा हो सकता है जिसे विश्व जैन मिशनने अप