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________________ ११२ भगवानसे धर्मस्थिति-निवेदन [ वर्ष ११ नाया है। हां, एक जैन विश्वविद्यालय भी स्थापित करनेकी सुशानको विकसित करें और कुज्ञानको दूर करें। यह बहुत सख्त जरूरत थी यदि संभव हो तो । असंभव कुछ भी सब बात जैनसिद्धातोके व्यापक प्रचार-द्वारा ही सभव है। नही । जैनियोंके पास इतनी दानकी शक्ति है कि यदि उन्हे जैनधर्म "समता" और "अहिसा" का प्रवर्तक है। इसीसे ठीक मार्ग सुझाया जाये तो काफी रकम इन कार्योंके लिये युद्धोकी तरतमता एव आपसी मनोमालिन्यका सिलसिला इकट्ठी हो सकती है। केवल अमेरिका जैमे धनाढ्य देशमे हटकर सार्वभौम प्रेम एव सदिच्छाकी उत्तरोत्तर सवृद्धि ही यदि ठीक प्रचार किया जाये तो वहीके लोग अपने ही धनसे होगी और सारे संमारमे सच्चे सुख और स्थायी शांतिका फिर इन कार्योंको आगे-आगे बढ़ावेगे-पर आरंभमे हमे सच्चा मार्ग लोगोंको ज्ञात होगा । जबतक यह सच्चा ज्ञान दस-पांच लाख रुपये प्रचारमे लगाना जरूरी है। विश्वविद्या- या सम्यग्ज्ञान ससार नही बढेगा इस “एटमबम" के लयके लिये तो करोडोकी जरूरत होगी। पर हम चाहे तो भयानक, भीषण, और स्थायी भयसे छुटकारा पानेकी कोई सबकुछ हो सकता है। केवल भावना और सुदृढ इच्छाशक्ति सभावना नही । हम भी इसी ससारके प्राणी है । हमारा चाहिये। __ दुख-सुख भी इसीके साथ बँधा हुआ है । हमे अपने लिये भी केवल धर्म-धर्म चिल्लानेसे कुछ होने-जानेका नही। अपने वैज्ञानिक धर्मका प्रकाश फैलाना परमआवश्यक है। 'अनेकान्त' का प्रचार अनेकान्तरूपमे करनी ही होगा। मा न करके हम अपने कर्तव्यमे तो च्युत होग ही-अपने अज्ञान ही संसारमं सारे अनर्थों की जड है। अज्ञानको दूर विनामा मामी वास्तवमे स्वय पक्षास्त कांग । अन्यथा करनेके लिये सूज्ञान (Right Knowledge) को जरूरत वैसा करके ही हम धर्मवद्धि, धर्मपालन ओर कर्तव्यपालन है। यह सुज्ञान स्याद्वाद-द्वारा प्ररूपित एव प्रस्थापित कर सकेंगे; माथ ही साथ जैनधर्मको सचमुच "विश्वधर्म" और तीर्थकर-प्रणीत तत्त्वोका सच्चा रूप, धर्म और बनानेमे समर्थ भी हो सकेगे । व्यवस्था सब जाननेसे ही हो सकते है । हमारा कर्तव्य है कि हम समारमे ज्ञानकी वृद्धि करें, पटना, ता० २०-१२-५१ Pापत एव प्रस्थाऔर बनानेमें समर्थ । भगवानसे धर्म-स्थिति निवेदन ( श्री प० नाथूराम 'प्रेमी' ) कहां बह जैनधर्म भगवान ! जाने जगको सत्य सुझायो, टालि अटल अज्ञान । सती-दाह, गिरिपात, जीवबली, मांसाशन मद-पान । बस्तु-तत्व कियो प्रतिष्ठित, अनुपम निज विज्ञान कहां०॥ देवमूढ़ता आदि मेटि सब, कियो जगत कल्याण ॥कहां०॥ साम्यवादको प्रकृत प्रचारक, परम अहिंसावान । कट्टर बैरीहप जाकी क्षमा, दयामय बान । नीच-ऊंच-निर्षनी-धनीप, जाकी दृष्टि समान ॥ कहां०॥ हठ तजि, कियो अनेक मतनको सामंजस्य-विधान।कहां०॥ देवतुल्य चाहाल बतायो, जो ह समकितवान । अब तो रूप भयो कछु औरहि, सहि न हम पहिचान । शून, म्लेच्छ, पाहुने पायो, समवसरणमें स्थान ॥ कहां०॥ समता-सत्य-प्रेमने इक संग, यातें कियो पयान कहां।
SR No.538011
Book TitleAnekant 1952 Book 11 Ank 01 to 12
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJugalkishor Mukhtar
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year1952
Total Pages484
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Anekant, & India
File Size29 MB
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