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किरण २]
श्रुतकीति और उनकी धर्मशिक्षा
इतिहाससे हमे भली भांति ज्ञात है कि सन् १४०६ में 'परमिट्ठिपयाससार' (परमेष्ठिप्रकाशसार) । यह ग्रन्थमालवाके सूबेदार दिलावरखांको उसके पुत्र अलफखाने प्रति आमेरके शास्त्रभंडारमें मौजूद है, जिसमें प्रारंभके विष देकर मार डाला और मालवाको स्वतन्त्र घोषित करके दो पत्र और अन्तिमसे पूर्वका २८७वा पत्र नही है । इसमे वह स्वयं राजसिंहासन पर बैठा । उसने हुशंगशाहको उपाधि सात परिच्छेद है और इसकी रचना विक्रम संवत् १५५३ की धारण की और मांडवगढ़को खूब मजबूत बनाकर उसे ही श्रावण गुरुपंचमीके दिन माडवगढ़ दुर्ग के जेरहट नगरके नेमीअपनी राजधानी बनाई । उसीके वंशमें शाह ग्यासुद्दीन श्वर-जिनालयमें पूर्ण हुई है,जबकि ग्यासुद्दीनका राज्य थाऔर हुए, जिन्होने माडवगढ़से मालवाका राज्य विक्रमसंवत् उसका पुत्र नसीरुद्दीन राजधर्ममें बहुत अनुराग रखता था। इसमे १५२६ से १५५७ (सन् १४६९ से १५०० ईस्वी) तक किया। हरिवंशपुराण और धर्मपरीक्षा दोनोंका इससे पूर्व रचे जाने (Cambridge Shorter History of India का उल्लेख है और इसलिये ये तीनों कृतिया एक ही श्रुतकीतिपृ० ३०६) अतएव इसमें कोई सन्देह नही रहता कि की रचनाएँ है, इस विषयमें सन्देहके लिये कोई स्थान नहीं श्रुतकीर्तिकी पूर्वोक्त प्रशस्तिमे मालवेके इन्ही शाह रहता और एकता-विषयक वह समर्थन पूर्णत. हो जाता है ग्यासुद्दीनका उल्लेख है।
जिसकी डा० साहबने अपने लेख में आशा व्यक्त की है। हरिवंशपुराणके कर्ता श्रुतकीति ही प्रस्तुत धर्म-परीक्षा- यहा पर इस ग्रन्थकी प्रशस्तिके रचनाकालादि-सम्बन्धी के भी कर्ता है इसमे भी कोई सन्देहका कारण दिखाई नही दो-तीन वाक्योको ही उद्धृत किया जाता है :देता। दोनोके कर्ताका नाम एक है, गुरुका नाम भी दोनो
"वहपणसय तेवण गयवासइ ग्रंथोंमें वही त्रिभुवनकीर्ति पाया जाता है, और दोनो रचनाए
पुण विक्कमणिवसवच्छरहे। अपभ्रंश पद्योंमे है । इन रचनाओके परस्पर मिलान करने
तह सावणमासहं गुरुपंचनिसह पर तथा धर्मपरीक्षाकी अन्य हस्तलिखित प्रतिया मिलने पर,
गयु पुष्णु तयरहसतहै ।" मुझे आशा है, इनके एककर्तृत्वको और भी पूरा समर्थन
मालवेर-दुग्गमडवचल । वह साहि गयासु महाबल। प्राप्त हो जायगा।
साहि गसीरु णाम तह णवगु । रायधन्मअगुरायउ बहुगुणु । जिस स्थानमे हरिवंशपुराणकी रचना की गई थी
तह जेम्हरणय[२] सुपसिद्ध उ । जिगवेइहर मुगिसुपबुद्ध । उसका नाम उक्त प्रशस्तिमे 'जेरहद' कहा गया है। मालवा
णोम.सरजिणहरगिवसतइं। विरयउ एह गं हरिसंतई। प्रान्तमे यह स्थान कहा है इसका ठीक-ठीक निश्चय करनेका
तेहिं लिहाइहिं जाणागंथई । इय हरिवस पमहसुपसरथई। फिर कभी प्रयत्न किया जायगा। वर्तमानमे इतना ही जान विरदय पढमतमहिमित्यारिय। धम्मपरिक्ख पमुहमणहारिय। लेना पर्याप्त है कि श्रुतकीर्तिने अपने हरिवंशपुराणकी
इस परनिटुिपयाससारे अरुंहादिगुहिं वगणारचना मालवादेशके 'जेरहद' नामक नगरमै सवत् १५५२ में
लकारे अप्पसुदसुवकिनि जह सशिमहाकवुकी थी। सभवत. उन्होने अपभ्रशमे ही धर्मपरीक्षाकी रचना
विरयतो णाम सप्तमोपरिच्छेउ संमत्तो । भी इसी प्रदेशमे सवत् १५५२ के कुछ पूर्व या पश्चात् की
इति परमेष्ठिप्रकाशसार पंथ समाप्नः ।" होगी।
इस ग्रन्थप्रशस्तिसे यह भी जाना जाता है कि सबसे सम्पादकीय नोट
पहले धर्मपरीक्षाकी रचना हुई है। हो सकता है कि वह श्रुतकीर्तिकी एक तीसरी कृति और भी उपलब्ध है, १५५१ या उससे भी पूर्वको हो । उसके बाद हरिवशपुराण जिसको प्रशस्ति सम्वासा-वीरसेवामन्दिरके अपभ्रंश-विषयक रचा गया है और हरिवंशपुराणके बाद इस परमेष्ठिप्रकाशअप्रकाशित प्रशस्तिसंग्रहमे संग्रहीत है । उसका नाम है सारका नम्बर है, जिसको श्लोक-संख्या तीन हज़ार है।