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________________ J १२४ अनेकान्त [११ आषाढ़ और कार्तिक महीनोकी अष्टाहिकाओंमें अन्नका त्याग, अग्निपके भोजनका त्याग, चक्कीसे पिसे भोजनका त्याग, रसोंका त्याग तथा विशेष व्रत उपवास करते रहते हैं। इन्हीकी अहिंसात्मक चयकेि अनुसार ये वर्षा ऋतुके चतुर्मासमे विवाह आदि मांगलिक कार्योंको सम्पादन नहीं करते और इनके ही प्राचीन उपदेश अनुसार सदा अतिथि रूप साधु सन्तोंकी सेवा, दुःखी और भूखोंको दान, कूप, बावड़ी तालाब, धर्मशाला बिहार उपाश्रय धर्मशाला, चिकित्सालय आदि लोक-कल्याणकारी earth लिये धनका व्यय और विश्वके सभी प्राणियोके प्रति दयाका व्यवहार करते रहते है । इन्हीं योगियोंके समान ये नित्य प्रति संध्या समय सामायिक करना, प्रोढ अवस्थामे घरबार छोड़ आरम्भ व परिग्रहका त्यागकर सन्यासी होना और मरते समय सांथरा लेकर ममता रहित शरीरको छोडना -- पुण्य बन्ध और उच्च गतिका कारण समझते रहे है। यद्यपि जीवनच संविधाता ब्राह्मण ऋषियोकी सरकार व्यवस्थामे सन्यासको कोई स्थान प्राप्त नही है किन्तु योगियो कल्याणकारी विशुद्ध जीवनसे प्रभावित होकर जीवनकी आश्रम व्यवस्थामे सन्यासको एक महत्वपूर्ण स्थान प्राप्त रहा है । इन्हीं योगियोंके समान यहां के सभी जन सदा ( २ ) पुनर्जन्म वाद, (२) कर्मवाद अर्थात् अपने किए अनुसार ही उच्च और नीच जीवनकी प्राप्ति और पुण्यपाप वाद-कर्मफल स्वरूप स्वर्ग-नरक आदि सुख - दुखस्थानों की प्राप्ति तथा समस्त दुखोका अन्त करने वाले मोक्ष आदि तत्त्वोमे विश्वास रखते रहे है, यं सदा संसारको अनित्य और इसके सुखोको दुखमय मानकर नित्य शिवपदके लिये लालायित और जिज्ञासु बने रहे हे । ये सदा मनुष्य भवको मोक्षद्वार मानकर देवपर्याय पर तरजीह देते रहे है, ये सदा वृषभ, अजित, अरिष्टनेमि, राम, कृष्ण, बुद्ध, पाश्वं महावीर आदि क्षत्रिय कुलोत्पन्न सिद्ध पुरुषोको साक्षात दिव्य अवतार मानते रहे हैं और इन्द्र, अग्नि, वरुण, सोम, सूर्य, ग्रह, नक्षत्र, नाग, यक्ष, कुबेर, वैश्रमण ही, श्री, लक्ष्मी, सरस्वती, दुर्गा, पार्वती आदि सभी देवताओको इन अवतारोके भक्त, सेवक और अनुचर होनेके कारण मान्य ठहराते रहे है। इन्ही योगियो मौलिक सिद्धान्तोके प्रतीक रूप ॐ स्वस्तिका, त्रिशूल, धर्मपत्र आदि चिन्होको भारतीय जन आज तक जन मंगल कामना के अर्थ उपयोगमे लाते रहे हैं। उपरोक्त वर्णनसे सिद्ध है कि मोहनजोदड़ो कालसे लेकर आज तकका भारतीय जीवन भ्रमणसस्कृतिको मान्यतामो प्रथाओंसे उसके आदर्श और व्यवहारसे ओतप्रोत रहा है। इस तरह मोहनजोदडो कालीन और आधुनिक भारतीय सभ्यतामें एक श्रंखलाबद्ध सम्बन्ध है । सन्तधी वहीं गणेशप्रसादजीका पत्र अनेकान्तके 'सर्वोदयतीर्थाङ्क' को पढकर सन्तश्री वर्णी गणेश प्रसादर्जी ने अपने हृदयोद्गारोको व्यक्त करता हुआ जो पत्र सागर से भेजा है वह इस प्रकार है "श्रीयुत महनीय पं० जुगलकिशोरजी योग्य इच्छाकार सर्वोदय अंक आया । पत्रकी प्रशंसा नया करूं पत्रको पढ़कर जो आनन्द आया -- इस समय यदि मेरे स्थान पर कोई सद्गृहस्थ होता तब पत्रको अजर अमर कर देता। मै तो मिथुक है—यही मेरा आशीर्वाद है जो आप अजर अमर हो जायें- आप मनुष्य नहीं आपका आत्मा श्री समन्तभद्र महाराजके हृदयाम्बुजका भ्रमर है, विशेष क्या लिवू ।" - गणेश वर्णी चैत्र सुदि २ सं० २००९
SR No.538011
Book TitleAnekant 1952 Book 11 Ank 01 to 12
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJugalkishor Mukhtar
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year1952
Total Pages484
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Anekant, & India
File Size29 MB
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