________________
किरण २]
मोहनजोदड़ो-कालीन और आधुनिक जैनसंस्कृति
१२३
अर्य-आयुके अन्तिम भाग--वृद्धावस्थामें वामनने तप किया, उसी तपके प्रभावसे उसे शिवके दर्शन हुए-वह शिव (कल्याण प्रदाता) पद्मासनसे स्थित, श्याम मूत्ति, दिगम्बर (नग्न मूत्ति) नेमिनाथ-महान भयकर कलिकालमें सम्पूर्ण पापोंको नष्ट करने वाले और दर्शन एव स्पर्शनसे ही करोडो यज्ञोसे उत्पन्न फलको देने वाले थे इसलिये वामनने उनका नाम शिव-कल्याणदाता-रख दिया ।
रवत्तानो जनो नेमिःयुगादिमिलावरे । ऋषीमा प्रमादेव मुक्तिमार्गस्थ कारगम् ॥
अर्य--जिन भगवान नेमिनाथने युग के आदिसे (१) पवित्र रैवतक पर्वतपर तपस्या की अतम्ब ऋषियोका आश्रय होनेके कारण ही वह (रैवतक पर्वत) मुक्तिका कारण बन गया।
यहां मिको 'जिन' सज्ञा दी गयी है और उनके तपस्या-निर्वाग स्थान को मुक्तिका कारण कहा गया है।
(3) वेगलोन सम्राट नेत्रु चन्द नेजर (Nabuchand Nezar) का दानपत्र भी इस सम्बन्धने उल्लेखनीय है। यह दान-पत्र Illustrated Weekly of India १४ अप्रैल १९३३ के पृष्ठ ३१ पर डा० प्रागाथ-पो.न्दूि विश्व विद्यालय बनारस द्वारा अर्थ सहित प्रकाशित हुआ है। उनके अध्ययनके अनुमार इस दानपत्र का अर्थ निम्न प्रकार है--
"रीवापुरि (जूनागढ़) मे राज्य देवता-सूसाका प्रधान देवता नेवुचन्द नेजर आया, उसने यदुराजके स्थानम गठ (मन्दिर) बनवाया, हमारे ईश्वर (रात) नागेन्द्रो आनेवालो नावोको आयको दान के तौर पर (भेटमे) दिया रैवतक (पर्वत) के ओन् (भगवान्) सूर्यदेवता मिके लिये।" ।
इस दान-पत्रमे भठो भाति सिद्ध है कि न केवल भारतीय जनता बल्कि दूर पश्चिमी एरियाई देशो के लोग भी भगवान् नेमिनाथके उपासक थे।
जैसे नालन्दा निवासी इन्द्रभूति गौतम ब्राह्मण भगवान महावीरके प्रसिद्ध गणधर (Apostle) थे। उसी प्रकार जैन अनुश्रुति अनुसार अरिष्टनेमिके मुख्य गणधरका नाम सुप्रभ (सोमक) था' । हो सकता है कि उनके गोत्रका नाम अङ्किरस हो और उनका पूरा नाम सुप्रभ या सोमक हो क्योकि छान्दोग्य उपनिषद ३.१७ के अनुसार अङ्किरस ऋषि कृष्णका गुरु था
और उसने जो आध्यात्मिक शिक्षा कृष्णको दो यो जिससे वह (कृष्ण) तृप्त ही हो गया था। वही तत्कालीन जैन तीर्थकुरोकी वास्तविक शिक्षा थी।
जैन ग्रन्योंने कहा है कि भरत क्षेत्रमें आदि और अन्तिम तीर्थङ्करोको छोड़कर शेष २२ तीर्थङ्कर सामायिक संयमका ही उपदेश देते है अर्यात ऐसे धर्मका जिससे आत्मामें समता, शमता, और निराकुलताको स्थापना हो अर्थात् वे जिस धर्मका उपदेश करते है उसमें निम्न तत्व शामिल होते है-इन्द्रिय सयम, प्राणसयम, परिग्रह सयम अथवा इन्द्रिय विषय वासनाओंका त्याग सब प्रकारके असत्यभाषणका त्याग, सब प्रकारके अदत्तादान ( चोरी ) का त्याग, सब प्रकारके परिग्रहोका त्याग । इनके अलावा वे ऐसे धर्मका भी उपदेश करते हैं जिससे जोवनमे बल, गौरव, महिमा और स्फूतिका संचार हो जैसे-तू अजर अमर है, त ज्ञान घन है, तू आनन्दमय है।' श्रमणसंस्कृतिका व्यापकरूप
__ अतीत कालके धुन्धले आकाशमे जहातक नजर (निगाह) जाती है भारत सदा श्रमणमस्कृतिका केन्द्र बना रहा है। यह उन्ही विचरते हए त्यागी और तपस्वी श्रमणोके पदचिन्होका प्रताप है कि भारतका चप्पा-चप्पा आज तीर्थभूमि और पुण्यभमि बना हुआ है । यहाके सभी जनगण चाहे वे किसी भी धार्मिक सम्प्रदायके क्यो न हो, इन योगियोके जीवनको एक आदर्श जीवन मानते रहे है। इन ही के आचरण अनुसार वे दया, दान और इन्द्रिय दमनको धर्म और हिंसा, झूठ, चौरी, मैथन और परिग्रहको पाप समझते रहे हैं।
इन्ही योगियोके समान भारतके सभी जन अष्टमी, चतुर्दशी, पूर्णमासी, अमावस्या आदि पर्वके दिनोमे अथवा फागुन, १. तिलोयपणत्ति गाथा ९६६ ।
२. बट्टकेर आचार्य--मूलाचार ७.३२-३४; ७,१२५-१२९ पूज्यपाद चरित्रभक्ति ॥७॥ आशाधरअनगार धर्मामृत ९-८७ ॥ व्याख्याप्रज्ञप्ति ॥२०॥८॥, उत्तराध्ययन २३-२३-२७ स्थानाङ्ग-सूत्र क्रमाङ्क २६६ ॥