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संगीतका जीवनमें स्थान
और उसकी अति प्राचीनता
( श्री बाब छोटेलाल जैन ) "मनुष्यकी विभिन्न स्वाभाविक प्रवृत्तियोंमें गाना भी संगीत-द्वारा मनुष्य प्रणय करता है, संगीत हमें सुलाता एक सहज व्यापार है । उमड़ती भावनाओके आवेगके वशी- है और संगीतसे ही हमें शत्रुओंपर आक्रमणकी प्रेरणा भूत हो वह उन्हें अभिव्यक्त करनेके लिये आतुर हो उठता मिलती है । संगीत महान कार्य करनेके लिये जागरित है। भावोंके उद्वेगके अनुसार ही उसके स्वरोमें उतार-चढ़ाव करता है । अकेलेपनके समय संगीत साथी बनता है । आपकी आ जाता है। और तब वह उन्ही स्वर-लहरियोके सहारे आनन्द-वेलामें संगीत आल्हादित करता है । दुःखके समय अपनी भावनाओको अभिव्यक्त कर व्याकुल हृदयको शान्त साथ देता है। परखके समय सान्त्वना देता है । और पूजाकरनेका प्रयास करता है। यही संगीतका जन्म होता है। प्रार्थनाके समय कुछ क्षणोके लिये इस संसारके बन्धनोंवाणीका वरदान उसे प्राप्त है। शब्दों-द्वारा वह भावोंको से ही मुक्त कर देता है। प्रकट करता है। और स्वरोंके उतार-चढावसे भावोंकी संगीत, जिसमें नृत्य-गीत-वादित्र शामिल है, भारतकी गहराईकी ओर संकेत करता है। मानव-जन्मके साथ ही अति प्राचीन संस्कृति है और प्राग् ऐतिहासिककालसे अब यह प्रवृत्ति भी उसके साथ जुडी हुई आई है। जंगलोंमें रहने तक इसकी परम्परा-द्वारा ईश-कीर्तन, मांगलिक गीत,विनती, वाला मानव भी संगीतसे अपरिचित न था, न है। चाहे कोई पूजा और विभिन्न ऋतुओं तथा पर्व-महोत्सेवोंमें संगीत-द्वारा काव्यकार हो अथवा न हो, संसारके प्रायः प्रतिभाशाली हम आनन्द-विभोर होकर अपने हृदयोद्गार प्रकट करते हैं। व्यक्तियोंका संगीतके प्रति अनुराग रहा ही है । तभी मनुष्य तो क्या पशु-पक्षी तक इससे आकर्षित हो जाते हैं। तो संस्कृतने “साहित्य-संगीत-कला-विहीनः साक्षात् पशुः पक्षियोंमें कई जातिके पक्षी है जो स्वयं मधुर संगीत सुनाते पुच्छ-विषाणहीमः" तक कह दिया है। वर्तमान युगके सर्वश्रेष्ठ हैं; जैसे कोयल । सन् १९४० में इंदिरा नामकी हथिनीके वैज्ञानिक आइन्स्टाइन वायलिन (Violin) बजानेमें बदलेमें जापानने तीन गायक-पक्षी भारतको भेंटमें दिये थे। बड़े पट है । महात्मा गांधी जीको भी संगीतसे अति अनुराग मग और सांप भी बड़े संगीत-प्रिय जीव है। कौशाम्बीके था । जार्ज वरनार्डशा लोक-प्रसिद्ध नाटक-लेखककी नरेश उदयन तो वीणा बजा कर हाथी पकड़ने में प्रसिद्ध थे। माता बड़ी निपुण संगीतज्ञ थी, और वरनार्डशा भी पहले मोर मेघ-ध्वनि सुनकर कितनी सुन्दरतासे नाचता है, यह संगीतके समालोचक थे और संगीत-समालोचनाओंसे तो विदित ही है। ही उन्होंने पहिले प्रसिद्धि प्राप्त की थी। भजनके लिये संगीत अवसपिणी कालचक्रके आदिके तीन का लोंमेंबज अपरिहार्य है। भजनमें स्वरावलीका आधार पाकर भाव मनुष्य किसी प्रकारका कर्म या उद्यम नही करता था, केन्द्रीभूत हो उठते है । अस्थिरमन स्थिरता प्राप्त करता है। उसे अपनी जीवनोपयोगी सब बस्तुएं दस प्रकारके कल्पसंगीत संतुलन ( Harmony ) उत्पन्न करने में अपूर्व वृक्षोंसे प्राप्त हो जाती थी। इन दस प्रकारके कल्प वृक्षोंमें है । इससे चित्तमें शान्ति मिलती है । भजनोंको गाकर, तूर्याग जातिके कल्पवृक्षोंके प्रभावसे मनोहर वादित्रोंमानव इसी प्रकारकी शान्ति पाता है।"
की प्राप्ति होती थी। उस समय भोगभूमिके जीवोंके * गेयपदगीतिमे मीराकी देन--मीरा-स्मृतिग्रन्थ, कान सदा गीतोंके सुन्दर शब्दोंके सुनने में आसक्त रहते थे। कलकत्ता, वि. सं. २००६
..... स्वर्गाके देव भी बड़े संगीत-प्रिय होते हैं । वहां