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________________ ४१३] बीर० म. के नैमित्तिक के सभापति श्री मिश्रीलालजी कालाका भाषण [किरण १९ अमल करनेसे हम शान्ति का लाभ लेने में ज नकी स्वाश आवश्यक मैं चाहत हो रहे हैं। यद्यपि तीर्थक्षेत्र-सम्बन्धी छोटी-मोटी अनेक रहा है। इस अशान्तिस छुटकारा दिलाने वाले पुस्तकें प्रकाशित हो चुकी हैं परन्तु इन तीर्थक्षेत्रां- अहिसा और अपरिग्रहवादके सिद्धान्त हैं, जिनका का ऐतिहासिक परिचय, उनकी स्थापनाका काज और प्रचार आजसे ढाई हजार वर्ष पहले भगवान् महातीर्थक्षेत्र-सम्बन्धी दानपत्र तथा तत्सम्बन्धी प्राव. वीरने किया था। जिनपर अमल करनेसे हम शान्ति: श्यक अनुसन्धान इस विषय में कुछ भी नहीं किया का लाभ लेने में समर्थ हो सकते हैं। भगवान् महागया है, जिसके किये ज नेकी स्वाश आवश्यकता है। वीरने इन्हींका अपने जीवन में आदर्श उपस्थित किया मैं चाहता हूँ कि वीरसेवामन्दिर-द्वारा मुख्तार द्वारा मुख्तार था। अतः हम सबका कर्तव्य है कि हम भगवान् साहबकी देख-रेखमें इस प्रकारकी महत्वपूर्ण पुस्तक महाबीरकी उस अहिंसाका स्वयं आचण करते हुए तेयार हो जिसमें तीर्थक्षेत्रका प्रामाणिक इतिहास देश विदेशों में उसका प्रचार करनेका प्रयत्न करें। निहित हो। वीरसेवामन्दिरका अबतकका सेवा-कार्य मुख्तार जैन समाजकी दानशीलता भारतमें प्रख्यात है साहयके स्वनिर्मित भवन सरसावा जि. सहारनपुर लेकिन उनका दृष्टिकोण नवीन मन्दिरोंका निर्माण द्वारा होता रहा है। किन्तु अब वीरसेवामन्दिरके तथा बाह्य क्रियाकारको आदिमें रुपया खर्च करनेका टस्टियोंने यह आवश्यक समझकर उसका प्रधान रहता है। जितना रुपया समाजका अनेक छोटे छोटे कार्यालय दहली जेसे केन्द्र स्थानपर लानेका यत्न किया कार्यों में खर्च होता है यदि उसका चोथाई भा। है, जिससे संस्थाके अधिकारी देश-विदेशके लोगोंसे मी साहित्य-निर्माण एव प्रकाशनमें लगाया जाय, अपना सम्पर्क स्थापित कर सके और वहांकी जनतामें तो जैन समाजका मस्तक सदैवके लिए ऊँचा हो जैनधर्मके महान् सिद्धान्तोंका प्रचार प्रसार करने में सकता है। समर्थ हो सकें। जिस अहिंसा तत्त्वकी जैन तीर्थ-करोंने पूर्ण प्रतिष्ठा इसी आवश्यकताको ध्यान में रखते हुए मेरे परम की है और उसकी बादशताका समुज्ज्वल रूप मित्र बाबू छोटेलालजी और बाबू नन्दलालजी सरावगी सामने रक्खा है, जैनाचार्योंने जिसके प्रचार एवं कलकत्ता बालीने व्यालीस हजार रुपये देकर दरियागज प्रसार में अपने जोधनका लगाया है, महात्मा गांधीने देहली में जमीन खरीद करादी है उस पर एक लाख उसकी केवल मामा से भारतको पराधीनतासे रुपया स्वच कर बिल्डिंग बनानेकी महती भावश्यकता छुड़ाकर स्वतन्त्र किया है। याद उस अहिंसा तश्वका है जिसमें संस्था अपनी लायबेरोको व्यवस्थित कर प्रचार सारे संसारमें किया जाय तो उससे ससारकी उसका ठीक तौरम संचालन कर सके। यह सब अशान्ति दूर हो सकती है जा हमे हर समय अशान्त एवं व्याकुन बना रही है। आज संस्थाकी दूसरी आवश्यकता एक स्वतंत्र प्रेसकी सारा संसार भौतिक अस्त्र-शस्त्रोंकी चकाचौंध है जिसके बिना संस्थाका प्रकाशन-कार्य ठीक ढंगसे भौर उनसे होने वाले अवश्यम्भावी विनाशके परि नहीं हो सकता है। इस कार्यको पूर्ण करनेके लिए एक णामसे शंकित है और अपनी रक्षाके लिए निरन्तर लाख रुपयेकी आवश्यकता है। इसकी पूर्ती होने पर चिन्तित है। अहिंसा ही एक ऐसी शक्ति है जिसका समाजको तथा संस्थाके अधिकारियोंको प्रकाशन जीवनमें आचरण करने पर वह धधकती हुई भौतिक कार्यमें यथेष्ट सुविधा प्राप्त हो सकती है। हथियारोंकी अग्नि शांत हो सकता है,अहिंसाके प्रचार मिलिगका नकशा संस्थाके व्यवस्थापक ला. द्वारा संसार के उस गन्दे वातावरण को बदला जा राजकृष्णजी जैनके पास है। बिल्डिनके हॉल की लागत सकता है जो अशान्ति और बर्बरताका प्रतीक है पचीस हजार रुपया है और बड़े कमरोंकी लागत और जनता तीसरे महा युद्धसे होने वाली उस भीषण ग्यारह ग्यारह हजार रुपया है तथा शेष छोटे कमरोंकी विभीपिकाके भयसे सर्वथा छूट सकती है। इस समय लागत पांच २ हजार रुपया है कि यह समाजकी विश्वका तमाम बातावरण प्रशान्त और क्षुब्ध हो उपयोगी सस्था है मैं चाहता हूं कि इस पुनीत कार्यमें
SR No.538011
Book TitleAnekant 1952 Book 11 Ank 01 to 12
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJugalkishor Mukhtar
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year1952
Total Pages484
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Anekant, & India
File Size29 MB
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