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वीरसेवामन्दिरके नैमित्तिक अधिवेशनके सभापति
श्री मिश्रीलालजी कालाका भाषण मुझे परमर्ष है किवीरसेवामन्दिर जैसी साहि- इसीसे प्रेरित हो उन्होंने उसे राष्ट्रधर्म बनाया था। इस त्यिक संस्थाके नैमित्तिक अधिवेशनका कार्य मुझे कारण यहां जैनधर्मका गौरवपूर्ण स्थान रहा है, यह सौंपा गया है। मुख्तार साहबकी तपस्या, साहित्य- कहना सर्वथा युक्तियुक्त है। अनेक राजवंश उसके साधना और वीरसेवा मन्दिरके अब तकके कायेने संचालकही नहीं रहे हैं, किन्तु उन्होंने उसके संरक्षणमें मुझे बाध्य किया कि मैं आपको प्राज्ञाका उल्लंघन अपनी शक्तिको लगाकर अपनी कीर्तिको दिगन्त व्यापी
बनाया है। उनका नाम आज भी इतिहासमें सुरक्षित
है। इस देशमें ही भारतके वे महान योगी आचार्य 'वीर-सेवा-मन्दिरका संक्षित परिचय' नामकी
हुए हैं, उनमें कुन्दकुन्दाचार्य, उमास्वामी, स्वामी पुस्तक भाप लोगोंको भेंट स्वरूप देदी गई है उससे
समंतभद्र, पूज्यपाठ, पात्रकेशरी अकलकदेव, विद्यानंद, पापको वीरसेवामंदिर-द्वारा अबतक होने वाले कार्यों
सिहनन्दी, अजितसेन और नेमिचद्र सिद्धांतचक्रवर्ती का परिचय मिल गया होगा और यह भी मालूम हो
आदि प्राचार्यों के नाम खासतौरसे उल्लेखनीय हैं। इस गया होगा कि वीरसेवामन्दिरने जैन संस्कृति, उसके
लोक प्रसिद्ध गोम्मटेश्वर मूर्ति के निर्माता, राजा राश्चमल्ल साहित्य तथा इतिहासकं संरक्षणमें कितना प्रशस्त
तृतीयके प्रधानमन्त्री और सेनापति घीरमार्तड राजा काये किया है, और जैन संस्कृति पर होने वाले आरो
चामुण्डरायके नामसे आप परिचित ही हैं।। पोंका उत्तर देकर उसकी उज्ज्वल गुणगारमाको व्यक्त किया है। इस संस्थाने साहित्यिक और एतिहासिक
भारतीय साहित्यमें जैन माहित्यका महत्वपूर्ण अनुसन्धान द्वारा अनेक प्रन्यों और उनके कर्ता आचा
स्थान है। परन्तु मुझे खेद है कि हमारे पूर्वजोंने अपने योंका केवल पता ही नहीं लगाया है बल्कि उनके
प्रयत्न-द्वारा जिन कृतियाका निमोण किया था और समयादि-निर्णय-द्वारा लझी हई अनेक ऐतिहासिक
जिस निधिको वे हमारे लिए छोड़ गये हैं हम उनका गुत्थियोंको सुलझाया है। यही कारण है कि भाज
अधिकांश भाग संरक्षित नहीं रख सके हैं। जो कुछ विद्वत्समाजको दृष्टिमें यदि किसी सस्थाने ठोस
प्रन्थ राजकीय उपद्रवोंसे किसी तरह बचा सके उन्हें सेमाकार्य किया है तो वह वीरसेवा मन्दिर ही है।
भी पूणतः प्रकाशमें नहीं लासके। आज भी अनेक हमे हर्ष है कि श्रीगोमटेश्वरकी छत्रछायाने श्रवण
महत्वपूर्ण अप्रकाशित ग्रंथ पंथभण्डारोंमें पड़े हुए हैं, बेलगोल जैसे पवित्रस्थान पर नैमित्तिक अधिवेशन
जिनकी एक मात्रही प्रति अवशिष्ट है और जो दूसरे करनेके लिए हम आज यहां एकत्रित हुए हैं।
स्थानोंपर उपलब्ध भी नहीं होते,भण्डारोंमें अपने
जीवनको अन्तिम घड़ियाँ गिन रहे हैं। उन्हें दीमक उपलब्ध साहित्यमें दक्षिण भारतके जैनाचार्योंका खाये जारही है। यदि समाजने उनके प्रकाशनका यह गौरव पूर्ण स्थान रहा है। उन्होंने ग्रंथरचना, घोर सचित प्रबन्ध नहीं किया, तो महत्वपूर्ण ग्रंथ फिर तपश्चयों और कठोर यात्म-साधना-द्वारा आत्मलाभ हमारी आँखोंसे सर्वथा ओमल हो जाएँगे । नवीन करते हुए जैनधर्मके प्रचार-प्रसार एवं संरक्षणमें जो मन्दिरोंका निर्माण किया जा सकता है. नवीन मूर्तियां महत्वपूर्ण योग दिया है वह उनकी महत्वपूर्ण देनहै, भी प्रतिष्ठित की जासकती है. प्रचार द्वारा जैनियोंकी उसे भुलाया नहीं जाकता। यह उन्हींकी तपश्चर्या एवं सख्यामें भी वृद्धि भी की जा सकती हैं, परन्तु ये अपूर्व मात्मसाधनाका बल था जो अनेक राजवंशोंमें जैन- ग्रंथरत्न यदि हमारी थोड़ी सी लापरवाहीसे नष्ट हो धर्मकी केवल बास्था ही नहीं रही किन्तु जैनधमेकी गये तो फिर किसी तरह भी प्राप्त नहीं हो सकते । ममता उनके हृदयोंमें सैकड़ों वर्षों तक उनकी श्रद्धा. तीर्थक्षेत्रोंकी दशा भी अत्यन्त शोचनीय है। को ज्यों का त्यों अडोल बनाये रखने में समर्थ रही है, अनेकतीर्थक्षेत्र तो अभी भी हमारी आखोंसे मोमल