________________
किरण ४-५ ]
समन्तभद्र-वचनामृत
रह सकता ।
स्वयं शुद्धस्य मार्गस्य बालाऽशक्त-अनाऽऽभयाम् । वाच्यतां मत्प्रमामन्ति तदपहनम् ।।१५।। 'जो मार्ग - सम्यन्दर्शनादिरूपधर्म स्वयं शुद्ध हैस्वभावतः निर्दोष है-उसकी बालजनौके-हिताहितविवेकरहित अज्ञानी मूढजनो तथा अशक्तजनोंधर्मका ठीक तौरसे ( यथाविधि ) अनुष्ठान करनेकी सामर्थ्य न रखने वालोंके - - आश्रयको पाकर जो निन्दा होती होउम निर्दोष मार्गमें जो असद्दोषोद्भावन किया जाता हो — उस निन्दा या अमघोषोद्भावनका जो प्रमार्जनदूरीकरण - है उसे 'उपगूहन' अंग कहते है ।'
orrent --- इस अंगकी अगभूत दो बातें यहाँ खास तौरसे लक्षमे लेने योग्य है, एक तो यह कि जिस धर्ममार्गकी निन्दा होती हो वह स्वय शुद्ध होना चाहिये - अशुद्ध नही । जो मार्ग वस्तु अशुद्ध एव दोषपूर्ण है किसी अज्ञानभावादिके कारण कल्पित किया गया है—उसकी निन्दाके परिमार्जनका यहा कोई सम्बन्ध नही है—भले ही उस मार्गका प्रकल्पक किसी धर्मका कोई बडा सन्त साधु या विद्वान ही क्यो न हो । मागंकी शुद्धता-निर्दोषताको देवना पहली बात है। दूसरी । बात यह कि वह निन्दा किसी अज्ञानी अथवा अशक्तजनका आश्रय पाकर घटित हुई हो। जो शुद्धमार्गका अनुयायी नही ऐसे धूर्तजनके द्वारा जानबूझकर घटित की जानेवाली निन्दाके परिमार्जनादिका यहा कोई सम्बन्ध नही हूँ । ऐसे धूनकी कृतियोका यदि सन्मार्गकी निन्दा होनेके भयसे गोपन किया जाता है अथवा उनपर किसी तरह पर्दा डाला जाता है तो उसमे धूर्तनाको प्रोत्साहन मिलता है, बहुतोका अहित होता है और निन्दाकी परम्परा चलती है। अतः ऐसे धूर्तोकी धूर्तताका पर्दाफ़ाश करके उन्हे दण्डित कराना तथा सर्वसाधारणपर यह प्रकट कर देना कि 'ये उक्त सन्मार्ग के अनुयायी न होकर कपटवेपी है' सम्यग्दर्शनके इस अंगमें कोई बाधा उत्पन्न नही करता, प्रत्युत इसके पेशेवर धूतोंसे सन्मार्गकी रक्षा करता है ।
दर्शनाच्चरणाद्वाऽपि चलतां धर्मवत्सलः । प्रत्यवस्थापनं प्रातः स्थितीकरणमुच्यते ॥१६॥ 'सम्यग्दर्शनसे अथवा सम्यकुचारिणसे भी जो लोग चलायमान हो रहे हडिग रहे हों उन्हें उस विषय में दक्ष एवं धर्मसे प्रेम रखनेवाले स्त्री-पुरुषोके द्वारा जो फिरसे सम्यग्दर्शन या सम्यकचारित्रमें (जैसी स्थिति हो) अवस्थापन
"
१७३
करना है उनकी उस मरिमरता, चलचितता, स्वलना एवं डांवाडोल स्थितिको दूर करके उन्हें पहने जैसी अथवा उससे भी सुदृढ स्थितिमें लाना है-वह 'स्थितीकरण' अंग कहा जाताहै ।'
व्या- यहां जिनके प्रत्यवस्थापन अथवा स्थितीकरणकी बात कही गई है वे सम्यग्दर्शन या सम्यवचारित्रसे चलायमान होनेवाले है। धर्मके मुख्य तीन अंगोंमेंसे दो से चलायमान होनेवालोको तो यहा ग्रहण किया गया है किन्तु तीसरे अंग सम्यग्ज्ञानसे चलायमान होनेवालोंको ग्रहण नही किया गया, यह क्यो ? इस प्रश्नका समाधान, जहां तक मैं समझता हूं, इतना ही है कि सम्यग्दर्शन और सम्यग्ज्ञान दोनोका ऐसा जोडा है जो युगपत् उत्पन्न होते हुए भी परस्पर में कारण कार्य भानको लिये रहते हैसम्यग्दर्शन कारण है तो सम्यग्ज्ञान कार्य है, और इसलिये जो सम्यग्दर्शनमे चलायमान है वह सम्यग्ज्ञानमे भी चलायमान है और ऐसी कोई व्यक्ति नहीं होगी जो मम्यग्दर्शनसे तो चलायमान न हो किन्तु सम्यग्ज्ञानमे चलायमान हो, इसीसे नम्यानमे चलायमान होनेवालोके च निर्देशकी यहा कोई रन नही समझी गई। अथवा 'अपि शब्द द्वारा गौण रूपसे उनका भी ग्रहण समझ लेना चाहिये ।
जरूरत
इसके सिवाय, जिनको इम अगका स्वामी बतलाया गया है उनके लिये दो विशेषणोका प्रयोग किया गया हैएक तो 'धर्मवत्न' और दूसरा 'प्रात' इन दोनो यदि कोई गुण न हो तो स्थितीकरणका कार्य नहीं बनना; क्योंकि धर्मवत्मलता के अभावमं तो किसी चलायमानके प्रत्यवस्थापनकी प्रेरणा ही नही होती और प्राज्ञता (दक्षता) - के अभाव में प्रेरणाके होने हुए भी प्रत्यवस्थापनके कार्य में सफल प्रवृत्ति नही बनती अथवा यो कहिये कि सफलता ही नही मिलती। सफलताकेलिये घर्मके उन अंगनें जिनसे कोई चलायमान हो रहा हो स्वयं दक्ष होनेकी और साथ ही यह जाननेकी जरूरत है कि उसके चलायमान होनेका कारण क्या है और उसे कैसे दूर किया जा सकता है ।
स्वयूथ्यान्प्रति सद्भावसनाचाऽपेत कंतवा । प्रतिपतिर्यायो बाल्यमभिलप्यते ॥ १७॥ 'स्वधर्मसमाजके सदस्यों सम्यग्दर्शन, सम्यग्ज्ञान, सम्यचारिणरूप आत्मीय धर्मके मानने तथा पालनेवाले साधर्मीजनो के प्रति सद्भावसहित — मंत्री, प्रमोदसेवा तथा परोपकारादिके उनम भावको लिये हुए और