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मनकान्त
वर्ष ११
कपटरहित बो यथायोग्य प्रतिपत्ति है-यथोचित आदर- शय ज्ञानका प्रकाश चाहिये और इससे यह फलित होता है सत्काररूप एवं प्रेममय प्रवृत्ति है-उसे 'बात्सल्य' अंग कि सातिशयज्ञानके प्रकाशद्वारा लोक-हृदयोंमें व्याप्त कहते है।
अज्ञान-अन्धकारको समुचितरूपसे दूर करके जिनशासनके व्याख्या--इस अंगकी सार्थकताके लिये साधर्मी जनोंके माहात्म्यको जो हृदयाकित करना है उसका नाम 'प्रभावना' साथ जो आदर-सत्कार रूप प्रवृत्ति की जाये उसमें तीन बातो- है। और इससे यह स्पष्ट हो जाता है कि कोरी धन-सम्पत्ति को खास तौरसे लक्षमें रखनेकी जरूरत है, एक तो यह कि अथवा बल-पराक्रमकी नुमाइशका नाम 'प्रभावना' नही है वह सद्भावपूर्वक हो-लौकिक लाभादिकी किसी दृष्टि- और न विभूतिके साथ लम्बे-लम्बे जलूसोके निकालनेका को साथमे लिये हुए न होकर सच्चे धर्मप्रेमसे प्रेरित हो। नाम ही प्रभावना है, जो वस्तुत. प्रभावनाके लक्ष्यको साथ दूसरी यह कि उसमें कपट-मायाचार अथवा नुमाइश, दिखावट में लिये हुए न हों। हां, अज्ञान अन्धकारको दूर करनेका पूरा जैसी चीजको कोई स्थान न हो। और तीसरी यह कि वह आयोजन यदि साथ मे हो तो वे उसमे सहायक हो सकते है। 'यथायोग्य' हो--जो जिन गुणोंका पात्र अथवा जिस पदके साथ ही यह भी स्पष्ट हो जाता है कि प्रभावनाका कार्य योग्य हो उसके अनुरूप ही वह आदर-सत्काररूप प्रवृत्ति किसी जोर-जबर्दस्ती अथवा अनुचित दबावसे सम्बन्ध नही होनी चाहिये, ऐसा न होना चाहिये कि धनादिककी किसी रखता-उसका आधार सुयुक्तिवाद और प्रेममय व्यवहारबाह्य दृष्टिके कारण कम पात्र व्यक्ति तो अधिक आदर- द्वारा गलतफहमीको दूर करना है। सत्कारको और अधिक पात्र व्यक्ति कम आदर-सत्कारको यदि सम्यग्दर्शन इन अगोसे हीन है तो वह कितना प्राप्त होवे।
नि.सार एवं अभीष्ट फलको प्राप्त करानेमे असमर्थ है उसे अज्ञान-तिमिर-व्याप्तिमपाकृत्य ययाययम् । व्यक्त करते हुए स्वामी जी लिखते है:जिनशासन-माहात्म्य-प्रकाशः स्यात्प्रभावना ॥१८॥ नाङ्गहीनमलं छत्तुं वर्शनं जन्म-सन्ततिम् ।
'अज्ञान-अन्धकारके प्रसारको (सातिशय ज्ञानके प्रकाश न हि मन्त्रोऽभर-न्यूनो निहन्ति विषवेदनाम् ॥२१॥ द्वारा) समुचितरूपसे दूर करके जिनशासनके माहात्म्य- 'अगहीन सम्यग्दर्शन जन्म-संततिको-जन्म-मरणकी को-जैनमतके तत्वज्ञान और सदाचार एव तपोविधान- परम्परारूप भव (ससार)प्रबन्धको-छेदनेके लिये समर्थ के महत्वको-जो प्रकाशित करना है-लोक-हृदयोपर नही है; जैसे अक्षरन्यून-कमती अक्षरे वाला-मत्र उसके प्रभावका सिक्का अंकित करना है-उसका नाम विषकी वेदनाको नष्ट करनेमें समर्थ नही होता है।' 'प्रभावना' अग है।'
व्याख्या-जिस प्रकार सर्पसे डसे हुए मनुष्यके सर्वअगमें व्याख्या--जिनशासन जिनेन्द्र-प्रणीत आगमको कहते व्याप्त विषकी वेदनाको दूर करनेके लिये पूर्णाक्षर मत्रके है। उसका महात्म्य उसके द्वारा प्रतिपादित अनेकान्तमूलक प्रयोगकी जरूरत है न्यूनाक्षर मत्रसे काम नही चलता, तत्वज्ञान और अहिसामूलक सदाचार एव कर्मनिर्मूलक उसी प्रकार ससार-बन्धनसे छुटकारा पानेके लिये प्रयुक्त तपोविघानमें संनिहित है। जिनशासनके उस माहात्म्यको हुआ जो सम्यग्दर्शन वह अपने आठो अगोसे पूर्ण होना चाहियेप्रकटित करना-लोक-हृदयोंपर अकित करना ही यहा एक भी अगके कम होनेसे सम्यग्दर्शन विकलागी होगा और 'प्रभावना' कहा गया है। और वह प्रकटीकरण अज्ञानरूप उससे यथेष्ट काम नहीं चलेगा-वह भवबन्धनमे अथवा अन्धकारके प्रसार (फैलाव) को समुचितरूपसे दूर करने- सासारिक दुःखोसे मुक्ति की प्राप्तिका साधन नही हो सकेगा। पर ही सुघटित हो सकता है, जिसको दूर करनेकेलिये साति
--युगवीर