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________________ १७२ बनेकान्त [ वर्ष ११ ऐसे ( इन्द्रियादिविषयक सांसारिक ) सुखमें जो अनास्था- अंगका पात्र नहीं। इस अंगके धारकमें गुणप्रीतिके साथ अनासक्ति और अश्रद्धा अरुचि अथवा अनास्थारूप अग्लानिका होना स्वाभाविक है-वह किसी शारीरिक श्रद्धा-अरुचिपूर्वक उसका सेवन है उसे 'अनाकांक्षणा'- अपवित्रताको लेकर या जाति-वर्ग-विशेषके चक्करमें पड नि:काक्षित-अंग कहा गया है।' कर किसी रत्नत्रयबारी अथवा सम्यग्दर्शनादि-गुणविशिष्ट प्यास्या-यहां सांसारिक विषय-सुखके जो कर्म- धर्मात्माकी अवज्ञामें कभी प्रवृत्त नही होता। परवशादि विशेषण दिये गये है वे उसकी निःसारताको व्यक्त कापये पघि दुःखाना कापथस्थेऽप्यसम्मतिः । करने में भले प्रकार समर्थ है। उनपर दृष्टि रखते हुए जब उस असम्पक्तिरनत्कीतिरमूढावृष्टिरुच्यते ॥१४॥ मुखका अनुभव किया जाता है तो उसमें आस्था, आसक्ति, दुःखोंके मार्गस्वरूप कुमार्गमें-भवभ्रमणके हेतुइच्छा, रुचि, श्रद्धा तथा लालमादिके लिये कोई स्थान नही भूत मिथ्यादर्शन, मिथ्याज्ञान, मिथ्याचारित्रमें तथा रहता और सम्यग्दृष्टिका मब कार्य बिना किसी बाधा- कुमार्गस्थितमें-मिथ्यादर्शनादिके धारक तथा प्ररूपक आकुलताको स्थान दिये सुचारु रूपसे चला जाता है। जो कुदेवादिकोंमे-जो असम्मति है-मनसे उन्हे कल्याणका लोग विषय-मुखके वास्तविक स्वरूपको न समझकर उसमें साधन न मानना है-असम्मुक्ति है-कायकी किमी चेष्टाआसक्त हुए सदा तृष्णावान बने रहते है उन्हे दृष्टिविकारके से उनकी श्रेय.साधन जैसी प्रशमा न करना है-और अनुशिकार समझना चाहिये। वे इस अंगके अधिकारी अथवा स्कोति है-वचनसे उनकी आत्मकल्याण-साधनादिके रूपमें पात्र नही । स्तुति न करना है- उसे 'अमूढवृष्टि' अंग कहते है।' स्वभावतोऽशुचौ काये रत्नत्रय-पवित्रिते । ___व्याख्या-यहा दुखोके उपायभूत जिस कुमार्गका निर्जुगुप्सा गुण-प्रीतिमता निविचिकित्सिता ॥१३॥ उल्लेख है वह मिथ्यादर्शन, मिथ्याज्ञान और मिथ्याचारित्र 'स्वभावसे अशुचि और रत्नत्रयसे—सम्यग्दर्शन- रूप है, जिसे ग्रन्थकी तीमरी कारिकामे 'भवन्ति भवपद्धति' सम्यग्ज्ञान-सम्यक्चारित्ररूपधर्मसे-पवित्रित कायमे- वाक्यके द्वारा संमार-दु खोका हेतुभूत वह कुमार्ग सूचित किया धार्मिकके शरीरम-जो अग्लानि और गुणप्रीति है वह है जो सम्यग्दर्शनादिरूप सन्मार्गके विपरीत है । ऐसे कुमार्ग'निविचिकित्सिता' मानी गई है । अर्थात् देहके स्वाभाविक की मन-वचन-कायसे प्रशसादिक न करना एक बात तो यह अशुचित्वादि दोषके कारण जो रत्नत्रय गुण-विशिष्ट देही- अमूढदृष्टिके लिये आवश्यक है, दूसरी बात यह आवश्यक के प्रति निरादर भाव न होकर उसके गुणोमे प्रीतिका भाव है कि वह कुमार्गमे स्थितकी भी मन-वचन-कायमे कोई है उसे सम्यग्दर्शनका निविचिकित्मित' अंग कहते है। प्रशसादिक न करे और यह प्रशमादिक जिमका यहा निषेध व्याख्या-यहा दो बाते खास तौरसे ध्यानमें देने योग्य किया गया है उसके कुमार्गमे स्थित होनेकी दृष्टिसे है, उल्लिखित हुई है, एक तो यह कि शरीर स्वभावसे ही अपवित्र अन्य दृष्टिसे उस व्यक्तिको प्रशंसादिका यहा निषेध नही है। है और इसलिये मानव-मानवके शरीरमें स्वाभाविक अपवि- उदाहरणके लिये एक मनुष्य धार्मिक दृष्टिसे किसी ऐसे त्रताकी दृष्टिसे परस्पर कोई भेद नही है-सबका शरीर मतका अनुयायी है, जिसे 'कुमार्ग' समझना चाहिये; परन्तु हाड़-चाम-रुधिर-मांस-मज्जादि धातु-उपधातुओका बना वह राज्यके रक्षामत्री आदि किसी ऊचे पद पर आसीन है हुआ और मल-मूत्रादि अशुचि पदार्थोसे भरा हुआ है। और उसने उस पदका कार्य बडी योग्यता, तत्परता और दूसरी यह कि, स्वभावसे अपवित्र शरीर भी गुणोंके योगसे ईमानदारीके साथ सम्पन्न करके प्रजाजनोको अच्छी राहत पवित्र हो जाता है और वे गुण है सम्यग्दर्शन, सम्यग्ज्ञान, (साता, शान्ति) पहुचाई है, इस दृष्टिसे यदि कोई सम्यग्दृष्टि सम्यक्चारित्ररूप तीन रत्न। जो शरीर इन गुणोसे पवित्र उसकी प्रशंसादिक करता या उसके प्रति आदर-सत्कारके रूप है-इन गुणोंका धारक आत्मा जिस शरीरमें वास करता मे प्रवृत्त होता है, तो उसमें सम्यग्दर्शनका यह अंग कोई बाधक है-उस शरीर तथा शरीरधारीको जो कोई शरीरकी नही है। बाधक तभी होता है जब कुमार्गस्थितिके रूपमें स्वाभाविक अपवित्रता अथवा किसी जाति-वर्गकी विशेषता- उसकी प्रशंसादिक की जाती है। क्योकि कुमार्गस्थितिके के कारण घृणाकी दृष्टिसे देखता है और गुणोमें प्रीतिको रूपमें प्रशंसा करना प्रकारान्तरसे कुमार्गकी ही प्रशसादिक भुला देता है वह दृष्टि-विकारसे युक्त है और इसलिये प्रकृत करना है, जिसे करते हुए एक सम्यग्दृष्टि अमूढदृष्टि नही
SR No.538011
Book TitleAnekant 1952 Book 11 Ank 01 to 12
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJugalkishor Mukhtar
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year1952
Total Pages484
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Anekant, & India
File Size29 MB
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