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किरण ११] दक्षिण भारतमें जैनधर्मको राजाश्रय और उसका अभ्युदय
[३७६ कर शैद हो गए तो उनके साथ महेन्द्रवर्मन भी शैव हो निरवध पंडितको जैन-मदिरकी रक्षाके लिए एक ग्राम गया। शैष होने पर धर्मसेनने अपना नाम अप्पड़ रखा। दिया। उसके पुत्र विक्रमादित्य (द्वितीय) ने राज्यकाल पाठवीं शताब्दीका एक पांख्य नरेश नदुमारन अपर
. (०३३ से ७४७) ई० एक जैन मन्दिर की भली प्रकार मरम्मत नाम कुणपांत्य जैनधर्मावलम्बी था और तामिल भाषाके
कराई और एक दूसरे जैन साधु विजय पंडितको इस शैव प्रन्योंके अनुसार शैवाचार्य सम्बन्धने उससे जैन धर्म
मन्दिरकी रक्षाके लिए कुछ दान दिया । किन्तु वास्तवमें
जैनधर्मका स्वर्णयुग गंग-राष्ट्रके शाशोंके समयमें था छुड़वाया।
और यह पहले ही बताया जा चुका है कि श्रवणबेलगोलमें कर्नाटक में बनवासीके कदम्ब शासकोंमें काकुस्थवर्मन
मारमिह (तृतीय) के सेनापति चामुण्डरायने बाहुबली(४३० से ५५० ई.) मृगेश वर्मन ( ४७५ से ४६० ई.)
की अविनश्वर मूति बनवाई । संक्षेपमें यह कहा जा सकता रविवर्मन (४१७ से १३७) और हरिवमेन (२३७ स क गंगराष्टके शासक कट्टर जेन थे। ३४७ ) यद्यपि हिन्दू थे तथापि उनकी बहुत-सी प्रजाके जैन होनेके कारण वे भी यथाक्रम जैनधर्मके अनकल थे। राष्ट्रकूट वंशके शासक भी जैनधर्मके महान संरक्षक काकस्थवर्मनने अपने एक लेकके अन्तमें प्रथम तीर्थकर रहे हैं । गोविन्द (नृतीय) राज्यकाल (०१८ से ८१५)ई. ऋषभदेवको नमस्कार किया है। उसके पोते मृगशवर्माने
महान जैनाचार्य परिकीतिका संरक्षक था। उसके पुत्र वैजयन्ति प्रतिकेजीमान
अमोघवर्ष (प्रथम) राज्यकाल ८१७ से ८७८ ई. को और समयमें कालवंग प्रामको तीन भागोंमे विभक्त किया। जिनसेनाचायक चरणाम बठनेका सौभाग्य प्राप्त हुआ था। पहला भाग उसने भगवानकोकिया न श्राचार्य जिनमेन गुणभद्रके गुरु थे । इन्होंने सन् (७८३. भाग श्वेतपथवालों और तीसरा भाग निम्रन्थोंको । पला
८४) में गोविन्द (तृतीय) के समयमें श्रादिपुराणके प्रथम मिका (हालसी) में रविवर्माने एक ग्राम इसलिए दानमें भागकी रचनाकी और उसका उत्तरार्द्ध गुणभद्राचार्य ने दिया कि उनकी आमदनीस हर वर्ष जिनेन्द्र भगवानका मन् ८६७ में अमोघवर्षके उत्तराधिकारी कृष्ण (द्वितीय) उत्सव मनाया जाय । हरिवर्माने भी जैनियोंका बहुत दान- के राज्यकाल ८० से १२ में पूर्ण किया । अमोघवर्ष पत्र दिये हैं।
प्रथमके समयमें राष्ट्रकूटकी राजधानीमें 'हरिवंश पुराण' पश्चिमी चालुक्य वंशक शासक जैनधर्मकी संरक्षकना
'आदिपुराण' और 'उत्तर पुराण' अकलंकचरित, जयके लिए प्रख्यात थे । महाराज जयसिंह (प्रथम ने दिगम्बर
धवला टीका भादि ग्रन्थों की रचना हुई है। जयधवलाजैनाचार्य गुणचन्द्र, वासुचन्द्र और वादिराजको अपनाया।
टीका दिगम्बर जैन सिद्धान्तका एक महान् ग्रन्थ है। यहीं पुलकेशी (प्रथम ) १५२ ई. और उसके पुत्र कीर्तिवर्मा
पर वीराचार्यने गणित-शास्त्रका 'सार-संग्रह' नामका एक (प्रथम ) राज्यकाल (१६६ मे १७)ई. ने जैनमन्दिरोंको
__ ग्रन्थ रचा । अमोघवर्षने स्वयं नीतिशास्त्र पर एक 'प्रश्नोत्तरकई दानपत्र दिये । कीर्तिवर्माका पुत्र पुलकेशी (द्वितीय)
रग्नमालिका' बनाई । संक्षेपमें अमोघवर्ष प्रथमके समयमें राज्यकाल (६.६ मे ६४२) ई० प्रख्यात जैन कवि रविकीर्ति
यह कहा जाता है कि उसने दिगम्बर जैनधर्म स्वीकार का उपासक था, जिन्होंने हाल नामक ग्रन्थ रचा। इसमें
किया था और वह अपने समयमें दिगम्बर जैनधर्मका रविकीनिको कविताचातुरीके लिए कालिदास और भैरविसे
सर्वश्रेष्ठ संरक्षक था। कृष्ण (द्वितीय) के राज्यकालमें उपमा दी । एहाल ग्रन्थके कथनानुसार रविकीर्तिने जिनेन्द्र
उसकी प्रजा और सरदारांने या तो स्वयं मन्दिर बनवाये, भगवान्का एक पापाणका मन्दिर भी बनवाया । रविकीर्ति- या
या बने हुए मन्दिरोंको दान दिया । शक संवत् ८२० में को सत्पाश्रय (पुलकेशी) का बहुत संरक्षण था और गुण
गुणभद्राचार्यके शिष्य लोकमेनने महापुराणकी पूजा की । सत्याश्रयके राज्यकी सीमा तीन समुद्रों तक थी। पूज्य- यद्यपि कल्याणीके चालुक्य जैन नहीं थे तथापि हमारे पादके शिष्य निरवद्य पंडित (उदयदेव) जयसिंह (द्वितीय) पास सोमेश्वर (प्रथम) (१०४२ से १०६८ ई.) का उत्तम के राज्यगुरु थे और विनयादित्य ( १८० से ६६७ ई.) उदाहरण है, जिन्होंने श्रवणबेलगोलके शिलालेखानुसार और उनके पुत्र विजयादित्य ( ६९६ से ७३३ ई.) ने एक जैनाचार्यको 'शब्द चतुर्मुख' की उपाधिसे विभूषित