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अनेकान्त
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किया था। इस शिलालेखमें सोमेश्वरको 'पाहवमल' उदाहरणके तौर पर नरसिंह (प्रथम) राज्यकाल (१४३ से कहा है।
११७३)वीरवहन (द्वितीय) राज्यकाल (११७३ से १२२०) * तामिल देशके चोल राजामौके सम्बन्ध में यह धारणा और नरसिंह (तृतीय) राज्यकाल (१२५ से १२६१) निराधार है कि जिन्होंने जैनधर्मका विरोध किया। जिन के नाम उल्लेखनीय हैं। कांचीके शिलालेखोंसे यह बात भली प्रकार विदित होती विजयनगरके राजाओंकी जैनधर्मके प्रति भारी सहिहै कि उन्होंने प्राचार्य चन्द्रकीर्ति और पनवय॑वीर्यवमन- गुता रही है। अतः वे भी जैनधर्मके संरक्षक थे । बुक्का की रचनाओंकी प्रशंसा की। चोल राजाओं द्वारा जिन- (प्रथम) राज्यकाल ( १३५७ से १७७८) ने अपने समयमें कांचीके मन्दिरोंको पर्याप्त सहायता मिलती रही है। जैनों और वैष्णवोंका समझौता कराया। इससे यह सिद्ध है कलचूरि वंशके संस्थापक त्रिभुवनमल्ल विज्जल राज्य-. .
कि विजयनगरके राजाओंकी जैनधर्म पर अनुकम्पा रही काल (११५६ से ११६७ ई.) के तमाम दान-पत्रोंमे एक
है। देवराय प्रथमकी रानी विम्मादेवी जैनाचार्य अभिनयजेनतीर्थकरका चित्र अंकित था। वह स्वयं जैन था। चारुकी ति पंडिताचार्यकी शिष्या रही है और उसीने
वासयत माया श्रवणबेल्गोलमें शांतिनाथकी मूर्ति स्थापित कराई । क्योंकि उसने वासवके कहनेसे जैनिय को सन्ताप देनेसे बुक्का (द्वितीय) राज्यकाल (१३८५ से १४०६) के सेनाइन्कार कर दिया था । वामव लिंगायत सम्प्रदायका संथा- पनि इरगुप्पाने एक सांचीके शिलालेखानुसार सन् १३८५ पक था।
ईस्वी में जिन कांची में १७वें तीर्थंकर भगवान् कुन्थनाथका मैसूरके होयल शासक जैन रहे है। विनयादित्य
मन्दिर और संगीतालय बनवाया। इसी मन्दिरके दूसरे (द्वितीय राज्यकाल (१०४७ से ११०.ई.) तक हम
शिलालेखके अनुसार विजयनगरके नरेश कृष्णदेवराय सन् वंशका ऐतिहासिक व्यक्ति रहा है। जैनाचार्य शांतिदेव
(१५१० से १५२६) की जैनधर्मके प्रति सहिष्णुता रही और ने उसकी बहुत सहायता की थी। विष्णुवर्द्धनकी रानी
उसने जैन मन्दिरोंको दान दिया। विजयनगरके रामराय शान्तलादेवी जैनाचार्य प्रभाचन्द्रकी शिष्या थी और तक सभी शासकोने जैन मन्दिरोंको दान दिये और उनकी विष्णुवर्द्धनके मन्त्री गंगराज और हुलाने जैनधर्मका बहुत
- जैनधर्मके प्रति भास्था रहो । प्रचार किया । अतः इसमें कोई सन्देह नहीं है कि पहलेके विजयनगरके शासकोंका और उनके अधीन सरदारोंका हाय्यसल नरेश जैन थे। विष्णुवर्द्धन अपरनाम विट्टी' और मैसूर राज्यका आजतक जैनधर्मके प्रति यही दृष्टिरामानुजाचार्य के प्रभावमें आकर वैष्णव हो गये । विही कोण रहा है। कारकलके शासक गेरसोप्पा और भैरव भी वैष्णव होनेसे पहले कट्टर जैन था और वैष्णव शास्त्रोम जैनधर्मानुयायी थे और उन्होंने भी जैन-कलाको प्रदर्शित उसका वैष्णव हो जाना एक आश्चर्यजनक घटना कही जाती करने वाले अनेक कार्य किये। है। इस कहावत पर विश्वास नहीं किया जाता कि उसने अब प्रश्न यह है कि जैनधर्मकी देशना क्या है ? रामानुजकी आज्ञासे जनाका सन्ताप दिया; क्योंकि उसकी अथवा श्रवणबेल्गोल और अन्य स्थानांकी बाहुबलीकी रानी शान्तलादेवी जैन रही और विष्णुवर्द्धनकी अनुमतिसे विशाल मूर्तियों एवं अन्य चौवीस तीर्थंकरोंकी प्रतिमा जैनमन्दिरोंको दान देती रही। विष्णुवर्द्धनके मन्त्री गंग- संसारको क्या सन्देश देती हैं? राजकी सेवायें जैनधर्मके लिए प्रख्यात है विष्णुवर्द्धनने
। जनधमक लिए प्रस्थात ह विष्णुवद्धनने जिन शब्दका अर्थ विकारोंको जीतना है। जैनधर्मवैष्णव हो जानेके पश्चात् स्वयं जैनमन्दिराको दान दिया, के प्रवर्तकोंने मनुष्यको सम्यक श्रद्धा, सम्यक्बोध, सम्यक्उनकी मरम्मत कराई और उनकी मूर्तिया और पुजारिया- ज्ञान और निर्दोष चरित्र के द्वारा परमात्मा बननेका भादर्श की रक्षा की। विष्णुवर्द्धनके सम्बन्धमें यह कहा जा सकता उपस्थित किया है। जैनधर्मका ईश्वरमें पूर्ण विश्वास है है कि उस समय प्रजाको धर्मसेवनकी स्वतन्त्रता थी। और जैनधर्मके अनधान द्वारा अनेक जीव परमात्मा बने
विष्णुवर्बनके उत्तराधिकारी यद्यपि वैष्णव थे तो भी हैं। जैनधर्मके अन्तिम तीर्थंकर भगवान महावीरके धर्मउन्होंने जैनमन्दिर बनवाये और जैनाचार्योंकी रक्षा की। का २५०० वर्षोंका एक लम्बा इतिहास है। यह धर्म
जनधर्मका मामा बननेका
और जैनधर्मके
और जैनाचायव थे तो भी