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दक्षिण भारतमें जैनधर्मको राजाश्रय और उसका अभ्युदय
(श्री टी० एन० रामचन्द्रन एम० ए०) दक्षिण भारतमें जैनधर्मका स्वर्णयुग साधा- रोचक इतिहासकी ओर ले जाता है। श्रवणेबल्गोलमें उत्कीर्ण रणतया और कर्नाटकमें विशेषतया गंगवंशके शासकोंके शिलालेखोंके आधार पर इस बातका पता लगता है कि समयमें था, जिन्होंने जैनधर्मको राष्ट्र-धर्मके रूपमे मौर्यसम्राट चन्द्रगुप्तके समयमें अन्तिम श्रुतकेवली भरअंगीकार किया था। महान् जैनाचार्य सिंहनन्दी बाहु १२००० जैन श्रमणोंका संघ लेकर उत्तरापथसे दलिगंगराष्ट्रकी नीव डालनेके ही निमित्त न थे, बल्कि गंग- णापथको गये थे। उसके साथ चन्द्रगुप्त भी थे। प्रोफेसर राष्ट्रके प्रथम नरेश कोंगुणिरवर्मनके परामर्शदाता भी थे। जेकोबीका अनुमान है कि यह देशाटन ईसासे २६० वर्षसे माधव (द्वितीय) ने दिगम्बर जैनोंको दानपत्र दिये । कुछ पूर्व हुआ था । भद्रबाहुने अपने निर्दिष्ट स्थान पर इनका राज्यकाल ईमाके २४०-२६५ रहा है। दुर्विनीतको पहुँचनेसे पूर्वही मार्गमें चन्द्रगिरि पर्वत पर समाधिमरणवन्दनीय पूज्यपादाचार्यके चरणों में बैठनेका सौभाग्य प्राप्त पूर्वक देहका विसर्जन किया। इस दशाटनकी महत्ता इम हुना। इनका राज्यकाल ई. ६०१ से ६५० रहा है। बातकी सूचक है कि दक्षिण भारतम जैनधर्मका प्रारम्भ
११. में दविनीतके पुत्र मशकाराने जन-धर्मको राष्ट्र- इसी समयसे हुश्रा है । इसी देशाटनके समयसे जैन श्रमण धर्म घोषित किया। बादके गंग-शामक जैनधर्मके कट्टर संघ दिगम्बर और श्वेताम्बर दो भागोंमें विभक्त हुआ है। संरक्षक रहे हैं। गंगनरेश मारसिंह ( तृतीय) के समयमें भद्रबाहुके संघ गमनको देखकर कालिकाचार्य और विशाउनके सेनापति चामुण्डरायने श्रवणबल्गालमें बिन्ध्य- ग्वाचार्यके संघने भी उन्हींका अनुसरण किया। विशाखागिरि पर्वत पर गोम्मटेश्वरकी विशाल मूर्तिका निर्माण चार्य दिगम्बर सम्प्रदायके महान् प्राचार्य थे जो दक्षिण भार कराया। जो कि प्रथम तीर्थंकर ऋषभदेवकी रानी सनंदा- तके चोल और पाण्ड्य देश में गये। महानार्य कुन्दकुन्दके के पुत्र बाहुबलीकी मूर्ति है। मारसिंहका राज्यकाल समयमें तामिलदेशम जैनधर्मकी ख्यातिमें और भी वृद्धि ईमा से १६१-६७४ रहा है । जैनधर्ममें जो अपूर्व हुई। कुन्दकुन्दाचार्य द्राविड़ थे और स्पष्टतया दक्षिण स्याग कहा जाता है, मारसिंहने उस मल्लेग्वना द्वारा भारतके जैनाचार्योंमें प्रथम थे। कांचीपुर और मदुराके देहोस्मर्ग करके अपने जीवन को अमर किया । राजमल्ल राजदरबार तालिमदेशमें जैनधर्मके प्रचारमें विशेष सहा(प्रथम)ने मद्रास राज्यान्तर्गत उत्तरी भारकोट जिलेमें यक थे । जब चीनी यात्री युवान चुवांग ईसाकी ७वीं जैन गुफाएँ बनवाई। इनका राज्यकाल ई. ८१७-८२८ शताब्दीमें इन दोनों नगरों में गया तो उसने कांची में अधिरहा है। इनका पुत्र नीतिमार्ग एक अच्छा जैन था। कतर दिगम्बर जैनमन्दिर और मदुरामें दिगम्बरजैन
बाहुबलीके त्याग और गहन तपश्चर्याकी कथाको धर्मावलम्बी पाये। गुणग्राही जैनोंने बड़ा महत्व दिया है और एक महान् इतिहासज्ञ इस बातको स्वीकार करते हैं कि ईसासे प्रस्तर खंडकी विशाल मूर्ति बनाकर उनके सिद्धांतोंका प्रचार ११वीं शताब्दी तक दक्षिण भारतमें सबसे अधिक शक्तिकिया है, जो इस बातका द्योतक है कि बाहुबलीकी उक्त शाली, अाकर्षक और स्वीकार्य धर्म था। उसी समय मूर्ति त्याग, भक्ति, अहिंसा और परम श्रानन्दकी प्रतीक वैष्णव प्राचार्य रामानुजने विष्णुवर्द्धनको जैनधर्मका परिहै। उस मूर्तिको अग्रभूमि काल, अन्तर, भक्ति और नित्य- त्याग कराकर पैष्णव बनाया था। ता की उद्बोधक है। यद्यपि दक्षिण भारतमें कारकल कांचीपुरके एक पल्लव नरेश महेन्द्र वर्मन (प्रथम)
और बेसूरमें भी बहुबलीकी विशाल मूर्तियां एक ही राज्यकाल ६०० से ६३० ई., पांख्य, पश्चिमी चालुक्य, पाषाणमें उस्कीर्ण की हुई हैं, तथापि श्रवणबल्गोल की यह गंग, राष्ट्रकूट, कालचूरी और होय्यसल वंशके बहुतसे राजा मूर्ति सबसे अधिक आकर्षक होनेके कारण सर्वश्रेष्ठ है। जैनथे । महेन्द्रवर्मनके सम्बन्धमें यह कहा जाता है कि वह बावलीकी मूर्तिका इतिवृत्त हमें दक्षिणभारतके मैनधर्मके पहले जैन-थे, किन्तु धर्मसेन मुनि जब जैनधर्मको त्याग