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________________ समन्तभद्र-वचनामृत ( 5 ) देशावका शिकं वा सामयिकं प्रोषधोपवासो वा । वैय्यावृत्त्यं शिक्षाव्रतानि चत्वारि शिष्टानि ॥ ६१ ॥ 'दशावकाशिक, सामयिक, प्रोषधोपवास तथा वैयावृत्य, ये चार शिक्षाव्रत ( व्रतधरामणीयाँ- द्वारा ) बतलाए गए हैं।" देशावकाशिकं स्यात्काल-परिच्छेदनेन देशस्य । प्रत्यहमणुव्रतानां प्रतिसंहारो विशालस्य ॥ ६२ ॥ '( दिखतमें ग्रहण किए हुए) विशाल देशका - विस्तृत क्षेत्र मर्यादाका - कालकी मर्यादाको लिए हुए जो प्रतिदिन संकोच करना - घटाना है वह अणुव्रतधारी श्रावकका देशावकाशिक – देश निवृत्ति परकव्रत है ।" व्याख्या - इस व्रतमें दो बातें खास तौरसे ध्यानमें लेने योग्य है—एक तो यह कि यह व्रत कालकी मर्यादाको लिए हुए प्रतिदिन ग्रहण किया जाता है अथवा इसमें प्रतिदिन नयापन लाया जाता है; जबकि दिखत एक बार ग्रहण किया जाता है और वह ज्योंका त्यों जीवन पर्यन्त के लिए होता है। दूसरे यह कि दिग्व्रतमें ग्रहण किए हुए विशाल देशका - उसकी क्षेत्रावधिका - इस व्रतमें उपसंहार (अल्पीकरण) किया जाता है और वह उपसंहार उत्तरोत्तर बढ़ता रहता है— देशव्रतमें भी उपसंहारका अवकाश बना रहता है। अर्थात् पहले दिन उपसंहार करके जिसने देशकी मर्यादा की गई हो, अगले दिन उसमें भी कमी की जा सकती है-भले ही पहले दिन ग्रहण की हुई देशकी मर्यादा कुछ अधिक समयके लिए ली गई हो, अगले दिन वह समय भी कम किया जा सकता है; जबकि दिखतमें ऐसा कुछ नहीं होता और यही सब इन दोनों व्रतोंमें परस्पर अन्तर है । गृह-हारि-ग्रामाणां क्षेत्र-नदी- दाव - योजनानां च । देशावकाशिकस्य स्मरंति सीम्नां तपोवृद्धाः ॥६३ ‘गृह, हारि ( रम्ब उपवनादि प्रदेश ), प्राम, क्षेत्र (खेत, नदो, वन और योजन इनको तथा ( चकार या उपलचणसे) इन्हीं जैसी दूसरी स्थान निर्देशात्मक वस्तुओंको तपोवृद्ध मुनीश्वर ( गणधरादिक पुरातन - चार्य ) देशावकाशिकात की सीमाएँ क्षेत्र-विषयक मर्यादाएं-बतलाते हैं ।" संवत्सरमृतुमयनं मास - चतुर्मास-पचमृक्षं च । देशावकाशिकस्य प्राहुः कालाऽवधिं प्राज्ञाः ॥ ६४ ॥ 'वर्ष, ऋतु, अयन, मास, चतुर्मास पक्ष, नक्षत्र, इन्हें तथा (चकार या उपलक्षण से) इन्हीं जैसे दूसरे दिन, रात, अर्ध-दिन-रात, घड़ी घटादिसमय-निर्देशात्मक परिमाणोंको विज्ञजन ( गांगधरादिक महामुनीश्वर ) देशावका शिकव्रतकी काल-विषयक मर्यादाएँ कहते हैं।" सीमान्तानां परतः स्थूलेतर - पंचपाप-संत्यागात् । देशावकाशिकेन च महाव्रतानि प्रसाध्यन्ते । ६५ ।। 'मर्यादा के बाहर स्थूल तथा सूक्ष्म पंच पापोंका भले प्रकार त्याग होनेसे देशावका शिकव्रतके द्वारा भी महाव्रत साधे जाते हैं ।" व्याख्या- यहां महावतोंकी जिस साधनाका उल्लेख है वह नियत समयके भीतर देशावकाशिक व्रतकी सीमाके बाहरके क्षेत्र से सम्बन्ध रखती है। उस बाहरके क्षेत्रमें स्थित सभी जीवोंके साथ उतने समय के लिए हिंसादि पांचों प्रकारके पापोंका मन-वचन-काय और कृत-कारितअनुमोदनाके रूपमें कोई सम्ध न रखनेसे उस देशस्थ सभी प्राणियोंकी अपेक्षा अहिंसादि महाव्रतोंकी प्रसाधना बनती है। और इससे यह बात फलित होती है कि इस व्रतके प्रतीको अपनी व्रतमर्यादाके बाहर स्थित देशोंके साथ किसी प्रकारका सम्बन्ध ही न रखना चाहिए और यदि किसी कारणवश कोई सम्बन्ध रखना पड़े तो वहांके स-स्थावर सभी जीवोंके साथ महावती मुनिकी तरहसे आचरण करना चाहिये । प्रेषण - शब्दाऽऽनयनं रूपाऽभिव्यक्ति- पुद्गलक्षेपौ । देशावकाशिकस्य व्यपदिश्यन्तेऽत्ययाः पंच॥६६॥
SR No.538011
Book TitleAnekant 1952 Book 11 Ank 01 to 12
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJugalkishor Mukhtar
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year1952
Total Pages484
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Anekant, & India
File Size29 MB
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