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________________ ३४०] अनेकान्त [किरण १० '(देशावकाशिकव्रतमें स्वीकृत देश तथा काखकी व्रतकी क्षेत्र मर्यादाके भीतर और बाहर सब क्षेत्रोंकी मर्यादाके बाहर स्वयं न जाकर) प्रेषणकार्य करना-प्या- अपेक्षा त्याग करना है उसका नाम आगमके ज्ञाता पारादिके लिए किसी व्यक्ति, वस्तु, पत्र या संदेशको वहां 'सायिक' बतलाते हैं भेजना-पानयन कार्य करना-सीमा-बाय देशसे किसी व्याख्या-यहां जिस समयकी बात कही गई है किको इनाना या कोई चीज अथवा पत्रादिक मंगाना, उसका सूचनात्मक स्वरूप अगली कारिकामें दिया है। (वाब देशमें स्थित प्राणियोंको अपने किसी प्रयोजनकी । उस समय अथवा प्राचारविशेषकी अवधिपर्यन्त हिंसासिद्धि के लिए) शब्द सुनाना-उच्चस्वरसे बोलना, दिक पांचों पापोंका पूर्णरूपसे त्याग इस व्रतके लिये टेलीफोन या वारसे बातचीत करना अथवा लाउडस्पीकर विवक्षित है और उसमें पापोंके स्थूल तथा सूचम दोनों (ध्वनि-प्रचारक यन्त्र) का प्रयोग करना, अपना रूप प्रकार प्राजाते हैं। यह त्याग क्षेत्रकी दृष्टिसे देशावदिखाना, तथा पुद्गल द्रव्यके क्षेपण (पातनादि) द्वारा काशिक व्रतकी सीमाके भीतर और बाहर सारे ही क्षेत्रसे कोई प्रकारका संकेत करना, ये देशावकाशिकव्रतके सम्बन्ध रखता है। पांच प्रतीचार कहे जाते हैं। मूर्ध्वरुह-मुष्टि-वासो-बन्धं पर्यतबन्ध चापि । व्याख्यान प्रतीचारोंके दारा देशावकाशिकवत. की सीमाके वायस्थित देशोंसे सम्बन्ध-विच्छेदकी बात स्थानमुपवेषन वा समयं जानन्ति समयज्ञाः॥६॥ को-उसके प्रकारोंको स्पष्ट करते हुए अन्तिम सीमाके 'केशबन्धन, मुष्टिबन्धन, वस्त्रबन्धन पयङ्कबंधनरूपमें निर्दिष्ट किया गया है। यदि कोई दूसरा मानव इस पद्मासनादि मांडना- और स्थान-खड़े होकर कायोत्सर्ग प्रतके व्रतीकी इच्छा तथा प्रेरणाके बिना ही उसकी करना-तथा उपवेशन-बैठकर कायोत्सर्ग करना या किसी चीजको, उसके कारखानेके लेबिल लगे मालको, साधारण रूपसे बैठना, इनको आगमके ज्ञाता अथवा उसके शब्दोंको (रिकार्ड रूपमें) अथवा उसके किसी चित्र सामायिक सिद्धान्तके जानकार पुरुष (सामायिकका) या आकृति - विशेषको - अतसीमाके वासस्थित देशको समय-प्राचार-जानते हैं। अर्थात् यह सामायिक व्रतके भेजता है तो उससे इस व्रतका व्रती किसी दोषका भागी अनुष्ठानका बाह्याचार है। नहीं होता। इसी तरह सीमाबास स्थित देशका कोई व्याख्या-'समय' शब्द शपथ, आचार, सिद्धान्त, पदार्थ यदि इस व्रतीकी इच्छा तथा प्रेरणाके विना ही काल, नियम, अवसर प्रादि अनेक प्रों में प्रयुक्त होता स्वतन्त्र रूपमें बहांसे लाया जाकर इस व्रतीको अपनी है। यहाँ वह 'प्राचार' जैसे अर्थमें प्रयुक्त हुआ है। क्षेत्रमर्यादाके भीतर प्राक्ष होता है तो उससे भी व्रतको इस कारिकामें जिन आचारोंका उल्लेख है उनमेंसे किसी दोष नहीं लगता। हां, जानबूझ कर वह ऐसे चित्रपटों, प्रकारके प्राचारका अथवा 'वा' शब्दसे उनसे मिलते-जुलते सिनेमाके पदों तथा चलचित्रोंको नहीं देखेगा और न ऐसे किसी दूसरे प्राचारका नियम लेकर जब तक उसे स्वेच्छासे गायनों भादिके बारकास्त्रों तथा रिकार्डोको ही रेडियो या नियमानुसार छोड़ा नहीं जावे तब तकके समय (काल) आदि द्वारा सुनेगा जो उसकी क्षेत्रमर्यादासे बाहरके के लिये पंच पापोंका जो पूर्णरूपसे-मन, वचन, काय और चेतन प्राणियोंसे सीधा सम्बन्ध रखते हों और जिससे उनके कृत-कारित-अनुमोदनाके द्वारा-सर्वथा त्याग है वही पूर्वप्रति रागद्वेषकी उत्पत्ति तथा हिंसादिककी प्रवृत्तिका कारिकामें वर्णित सामायिककी कालमर्यादाके प्रकारोंका सम्भव हो सके। सूचक है; जैसे पद्मासन लगा कर बैठना जब तक असह्य प्रासमयमुक्ति मुक्त पंचाऽधानामशेषभावेन । (पाकुलताजनक) न हो जाय तब तक उसे नहीं छोड़ा जायगा और इसलिये असमादि होने पर जब उसे छोवा सर्वत्र च सामयिकाःसामयिकं नाम शंसन्ति ।।१७ मा (विवचित) समयकी-केशबन्धादि रूपसे गृहीत ® 'समयः शपथे भाषासम्पदोः कालसंविदोः। माचार की-मुक्तिपर्यन्त-उसे तोड़नेकी अवधि तक-जो सिद्धान्ताऽऽचार-संकेत-नियमावसरेषु च ॥ हिंसादि पांच पापोंका पूर्णरूपसे सर्वत्र-देशावकाशिक क्रियाधिकारे निर्दशेचा-इति रभसः
SR No.538011
Book TitleAnekant 1952 Book 11 Ank 01 to 12
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJugalkishor Mukhtar
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year1952
Total Pages484
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Anekant, & India
File Size29 MB
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