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________________ किरण १० ] जायगा तब तककी उस सामायिक व्रतकी कालमर्यादा हुई। इसी तरह दूसरे प्रकारोंका हाल है और ये सब घड़ीघंटा यादिकी परतंत्रतासे रहित सामायिककारकी स्वतन्त्रताके द्योतक अतिप्राचीन प्रयोग हैं जिनकी पूरी रूपरेखा आज बहुत कुछ अज्ञात है । समन्तभद्र-त्र चनामृत ' एकान्ते सामयिकं निर्व्याक्षेपे वनेषु वास्तुषु च । चैत्यालयेषु वापि च परिचेतव्यं प्रसन्नधिया ॥ ६६ ॥ ‘बनोंमें, मकानोंमें तथा चैत्यालयों में अथवा (अपि शब्दसे ) अन्य गिरि गुहादिकों में जो निक द्रव-निराकुल एकान्त स्थान हो उसमें प्रसन्नचि से स्थिर होकर सामयिकको बढ़ाना चाहिये - पंच पापके त्यागमें अधिकाधिक रूपसे दृढ़ता लाना चाहिये । व्याख्या - यहाँ 'एकान्ते' और 'निर्व्याक्षेपे' ये दो पद खास तौरसे ध्यानमें लेने योग्य हैं और वे इस बातको सूचित करते हैं कि सामायिकके लिये वन, घर या चैत्यायादिका जो भी स्थान चुना जाय वह जनसाधारणके श्रावागमनादि सम्पर्क से रहित अलग-थलग हो और साथ ही चींटी, डांस मच्छरादिके उपद्रवों तथा बाहर के कोलाहलों एवं शोरोगुलसे रहित हो, जिससे सामायिकका कार्य निराकुलता के साथ सध सके—उसमें कोई प्रकारका विक्षेप न पड़े । एक तीसरा महत्वपूर्ण पद यहाँ और भी है और वह है ‘प्रसन्नधिया’, जो इस बातको सूचित करता है कि सामायिकका यह कार्य प्रसन्नचित्त होकर बड़े उत्साहके साथ करना चाहिये - ऐसा नहीं कि गिरे मनसे मात्र नियम पूरा करनेकी दृष्टिको लेकर उसे किया जाय, उससे कोई लाभ नहीं होगा, उल्टा अनादरका दोष लग जायगा । व्यापार-वैमनस्याद्विनिवृत्यामन्तरात्मविनिवृत्या ! सामयिकं बध्नीयादुपवासे चैकभुक्ते वा ॥ १०० ॥ 'उपवास तथा एकाशनके दिन व्यापार और बैमनस्यसे विनिवृत्ति धारण कर - आरम्भादिजन्य शरीरादिPost der और मनकी व्यताको दूर करके - अन्तर्जल्पादि रूप संकल्प-विकल्प के त्याग द्वारा सामायिकको दृढ़ करना चाहिये ।' [ ३४१ कलुषता मिटे और अन्तरात्मामें अनेक प्रकारके संकल्पविकल्प उठकर जो अन्तर्जल्प होता रहता है—भीतर ही भीतर कुछ बातचीत चला करती है-वह दूर होवे । अतः इस सब साधन-सामग्रीको जुटानेका पूरा यस्न होना चाहिये । इसके लिये उपवासका दिन ज्यादा अच्छा है और दूसरे स्थान पर एक बार भोजनका दिन है। व्याख्या -- यहाँ सामायिककी दृढ़ताके कारणोंको स्पष्ट किया गया है । सामायिकमें हड़ता तभी लाई जा सकती है जब काय तथा वचनका व्यापार बन्द हो, चिन्तकी व्यग्रता सामयिकं प्रतिदिवसं यथावदप्य नलसेन चेतव्यम् । व्रत पंचक परिपूरण- कारणमवधान युक्त ेन ॥ १०१ ॥ ( न केवल उपवासादि पर्वके दिन ही, किन्तु ) प्रति · दिन भी निरालसी और एकाग्रचित्त गृहस्थ श्रावकों को चाहिए कि वह यथाविधि सामायिकको बढ़ावें; क्योंकि यह सामायिक अहिंसादि पंचत्रतोंके परिपूरणका उन्हें अणुव्रतसे महाव्रतत्व प्राप्त करानेका कारण है । व्याख्या - यहाँ पर यह स्पष्ट किया गया है कि सामायिक, उपवास तथा एक मुक्तके दिन ही नहीं, बल्कि प्रतिदिन भी की जाती है और करनी चाहिए; क्योंकि उससे अधूरे हिसादिक व्रत पूर्णताको प्राप्त होते हैं। उसे प्रतिदिन करनेके लिये निरालस और एकाग्रचित्त होना बहुत जरूरी है। इसकी ओर पूरा ध्यान रखना चाहिये । सामयिके सारम्भाः परिग्रहा नैव सन्ति सर्वेऽपि । चेलोपसृष्टमुनिरिव गृही तदा याति यतिभावम् १०२ 'सामायिक में कृष्यादि आरम्भों के साथ साथ सम्पूर्ण बाह्याभ्यन्तर परिग्रहोंका अभाव होता है इसलिये सामायिक की अवस्था में गृहस्थ श्रावककी दशा चेलोपसृष्ट मुनि-जैसी होती है। वह उस दिगम्बर मुनिके समान मुनि होता है जिसको किसी भोले भाईने दबाका दुरुपयोग करके वस्त्र श्रोढ़ा दिया हो और वह मुनि उस बस्त्रको अपने व्रत ओर पदके विरुद्ध देख उपसर्ग समझ रहा हो । व्याख्या - यहाँ सामायिकमें स्थित गृहस्थकी दशा बिल्कुल मुनि-जैसी है, इसे भले प्रकार स्पष्ट किया गया है और इसलिए इस व्रतके व्रती श्रावकको कितना महत्व प्राप्त है यह स्वतः स्पष्ट हो जाता है । अतः श्रावकोंको इस व्रतका यथा विधि आचरण बड़ी ही सावधानी एवं तत्परताके साथ करना चाहिये और उसके लिये अगली कारिकाओंमें सुकाई हुई बातों पर भी पूरा ध्यान रखना चाहिये ।
SR No.538011
Book TitleAnekant 1952 Book 11 Ank 01 to 12
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJugalkishor Mukhtar
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year1952
Total Pages484
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Anekant, & India
File Size29 MB
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