SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 471
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ मैं आँख फोड़कर चलूँ या आप बोतल न रक्खें ? (श्री कन्हैयालाल मिश्र 'प्रभाकर') श्रीमती शान्तिदेवीजी भीतरके कमरेसे बाहर चौकमें ओह ! क्या बात याद आगई। मेरे एक मित्र थे, भारही थीं कि उनका पैर रास्तेमें रजस्वी बोतलसे टकरा वे एक बार मुझे भी यात्रामें साथ ले गये। जहां गए, वहां गया। उनके एक यजमान थे। निमंत्रण पा, हम दोनों उनके घर बोतल सरसोके तेलकी थी। तेन बिखर गया, नाखून भोजन करने गये। अजीब बात कि श्रीमतीजी की दाहिनी में सस्त चोट लगी। मालाकर छेदासे बोली-"अरे, तू अखि बन्द तो श्रीमान् जी की बाई; दोनों काने ! मैं सोचता जहाँ देखता है वहीं चीज़ पटक देता है। यह बोतल रहा कि दो कमियोंका गठ-बन्धन कर, यह एक पूर्णताकी रखनेकी जगह है ? गधा कहीं का!" रचनाकी गई है या दो पूर्णताएँ रोगके किसी कोआपरेटिव अवसर पारखी खेदाने अपनी बहूजीका पैर मसला, श्रीक्रमणस दा श्राक्रमणसे दो अपूर्णताओं में बदल गई है? तेल समेटा और गल्ती मानी। मारी शान्तिदेवीजी भोजन बनता रहा, बातें चलती रहीं। बातों-बातों में नसभोला शिवपाई जाने क्या बात हुई कि पति-पत्नी में बात बन गई और वे पर इसके कोई दस-पन्द्रह दिन बाद उसी स्थान पर उसी । आपसमें भिड़ गए। लड़ाई बातों-बातोंकी, पर काफी घटनाने एक नया रूप ले लिया। पैनी। पतिको शायद उसके अहंकारने अचानक कहावेदा भीतरके कमरसे बाहर चौकमें प्रारहा था कि पत्नीकी यह हिम्मत और हिमाकत कि मेहमानोंक सामने उसका पैर रास्ते में रक्खी बोतलसे टकरा गया। पैरमें चोट ' तुझसे चौंच भिडाए! लगी, तेल बिखर गया, बोतल टूट गई। वह संभलही वह भभक उठा और तमझकर उसने कहा-"माली ! कानी कहीं की%3; बके जा रही है।" रहा था कि मल्लाकर शान्तिदेवीजीने कहा-"अरे, श्रॉम्ब कोड़कर नहीं चला जाता तुझसे ?" पत्नीने इस भभक को पिया-पचाया और तब अपनी अनदेखती आँखको जरा दबाकर, देखती अखिकी कुछ वेदा चन्ट-चतुर ! जानता था कि बोतल आज रास्तेमें कमानसी उपरको खींचे ठण्डे सुरमें कहा-"पोहो हमने महजीने रक्खी है। इसलिये शोखीसे मुस्कराते, कन अँखि । कोई दो आँखका भी ना देखा।" बांसे देखकर वह बोला-"बहुजी! मैं आँख फोड़कर बस कुछ न पूछिये कि निशाना कहां बैठा। पति चलू या आप रास्ते में बोतल न रक्खें ?" महाशय घड़ी नहा गए और मुझे हसी रोकना मुश्किल ___ समयकी बात; मैं दोनों दिन वहीं था, इसलिये छेदाके हो गया, तो मैं वहां से उठ भागा । प्रश्नमें जो मीठा-पना व्यंग था, उसे मैं ले पाया और प्रापको भी सुन-पढ़कर हंसी आए, तो हँस लीजिए, बहुत जोरसे मेरी हंसी फूट पड़ी। मैंने कहा-"ठीक है, पर बात तो सोचनेकी यह है कि क्या उन दोनोंकी तरह जब दा रास्तेमें बोतल रक्खे, तब चीजको गलत रखनेका हम सब भी काने नहीं है और हमारा भी वही हाल नहीं है सिद्धान्त माना जाय और जब वही काम खुद बहूजी कर कि अपनी प्रांखको भूले दूसरेकी आंख पर निशाना लगाए तो आंख फोड़कर चलनेका प्रसूख जागू हो!" बात हँसीकी थी, हँसीमें घुलमिल गई, पर मैं देखता अच्छा, यह कानापन क्या है ? एक पिताके दो बेटे। हैं कि हमारे जीवन में व्यापक रूपसे यह रोग फैला हुमा खेलमें एक बन गया राम, तो दूसरा रावण; बस होने है कि हम हरेक घटनाको, हरेक प्रश्नको अपनेही रषि- लगी तीरदाजी। तीर मामूली तिल के और धनुष बांसको कोबसे देखें। इसे रोग, मैं कुछ मुहावरेके तौरपर नहीं खपच्चीका, पर तीर आखिर तीर! रावणका तीर रामजी कह रहा हूँ। यह सचमुच एक नैतिक रोग है, जो मनुष्यको की वाई पाखमें घुस गया और प्रांख जाती रही-हो मानसिक रूपसे काना बना देता है। काना; जिसकी एक गए काने । मतलब यह कि चोटसे मा खोटसे। एक आंख माख दुर्भाग्यसे फुट गई! बैठ गई और हो गए काने !
SR No.538011
Book TitleAnekant 1952 Book 11 Ank 01 to 12
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJugalkishor Mukhtar
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year1952
Total Pages484
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Anekant, & India
File Size29 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy