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किरण ४-५
क्या सेवा साधनामें बाधक है ?
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नही कर सकते। जिन्हे केवल आत्म-कल्याण ही साधना की उपेक्षा करके भी हम जैनसमाजकी उन्नति नही कर सकेंगे, है वे एकाकी और निष्क्रिय रह कर भी आत्म-साधना वे जो कुछ कहते है उसपर भी हमें सोचना ही पड़ेगा, चाहें तो कर सकते है, लेकिन समाजको कौन अधिक और आत्मविकासके साथ-साथ यदि जनसेवा भी हो सकती उपयोगी होगे, यही प्रश्न है, हा मैने सामाजिक दृष्टि- हो तो उसमें बुराई क्या है ? से यह अवश्य कहा कि अगर हम चाहते हो कि ससारमे जैन- साधना या चितनकी दृष्टिसे विचार करनेपर भी हमें धर्मका और तत्त्वोका प्रसार हो तो दूसरे साधुओकी तरह यही दिखाई देता है कि कोई साधक कितना भी प्रयत्न करके हमारे साधुओको भी प्रत्यक्ष सेवाके काम करने चाहिये, रात-दिन चौबीसो घटे आत्मचिंतन नही कर सकता, क्योंकि मेरे सारे भाषणको सामाजिक दृष्टिकोणसे पढ़ना चाहिये ध्यान भी अन्तर्मुहुर्त से अधिक देर तक नही हो सकता ऐसा और मैने जो कुछ लिखा है वह किसी खास परम्परासे या बताया गया है और साधक भी इस बातका अनुभव करते पद्धतिसे आबद्ध होकर नहीं, बल्कि तुलनात्मक और उप- है, इसलिये चित्तको सत् प्रवृत्तिमें लगाकर उसकी शुद्धि योगात्मक दृष्टिसे लिखा है, और ऐसे लोगोके लिये कहा है करना आसान है ऐसा भी साधकोंको अनभव आता है, इसजो अपनी साधनाके साथ-साथ जन-कल्याण भी करना लिये अपनी मर्यादामें रह कर कोई प्रत्यक्ष सेवाके ऐसे चाहते है, जिन्हें जैन तत्त्वोके प्रसारमें रुचि है।
पढाने आदिके काममे या धर्मप्रसारमे लगे तो साधनामें हम सब ससारी प्राणी है, कोई आदमी संसारमे अकेला सहायता ही मिलती है, हा, उसमें हम उलझ न जायें इसकी नही रह सकता, अनेक व्यक्तियोके उपकार, सहयोग, सेवा- सावधानी रखना जरूरी है, एकात साधना अच्छी चीज है, के बलपर व्यक्तिका जीवन बनता है, यह अभिमान मिथ्या मनको शुद्ध करनेका वह उत्तम उपाय है, लेकिन उसकी ह कि कोई अपना निर्माण और विकास अकेले कर सकता है, मर्यादा नही भूलना चाहिये । मेरी विनम्र रायमें निरन्तर परस्पर अनुग्रह और उपग्रह ही जीवका कार्य है, ऐसी हालत- शुद्धि और कल्याणका ध्यान रखना भी अशुद्धि और मे संसारमें रह कर केवल आत्मकल्याण करनेवाले, आत्म- अकल्याणका कारण होता है, शुद्धि और कल्याणकी आकांक्षाकल्याण कर तो सकते हैं, पर जनताके लिये किसी प्रकार को त्यागे बिना शुद्धि और कल्याण नही हो सकता, हमारे उपयोगी नही पड सकते, आत्म-कल्याण करनेवाले साधुको यहा यह प्रसिद्ध ही है कि मुक्तिकाध्यान भी मुक्तिके लिये भी समाजसे अन्न-जलकी जरूरत पड़ती है, उसके लिये बाधक होता है । समाजमे आना ही पड़ता है और कुछ नही तो आत्मसाधना- शास्त्रोके प्रमाण देनेका झझटमे मै नही पड़ा करता । के लिये शरीरके सहयोगकी तो उन्हे भी जरूरत रहती है, शास्त्रोमे मे हर व्यक्ति अपने अनुकूल सामग्री निकाल लेता जैनधर्मके अरिहत और सिद्ध दो महान आदर्श है, सिद्धका है और वह आसानीसे मिल भी जाती है, शास्त्रोकी रचना ससारसे कोई ताल्लुक नही रहता मुक्त हो जाते है, अरिहत देश, कालकी परिस्थितियोके अनुसार होती है। इसलिये 'सदेह' और जीवनमुक्त रहते है, अरिहंतको पहले इसीलिये सब शास्त्र सब समयके लिये एक मे उपयोगी नही हो पाते, नमन किया जाता है कि ये संसारी लोगोको उपदेश करते श्री दौलतरामजीने शास्त्रोके कुछ अवतरण देकर एकांतहै, उन्हे सद्-मार्गपर लगनेकी प्रेरणा करते है, जन-सेवा और साधनाको महत्व देना चाहा है, मै भी चाहता तो अनासक्ति जन-कल्याण करते है।
पूर्वक प्रत्यक्ष सेवाके अनुकूल अवतरण दे सकता था___ इस समय हमारे नवयुवकोके मनमे साधुओके प्रति ग्वामकर गीताके, जिन्होने गीताका गहग अभ्यास किया आदर कम होता जा रहा है। यह आदर कम क्यो हो रहा है वे जानते है कि गीताका मूलमंत्र अनासक्तियोग है। सत्कर्म है, यह जरा गंभीरतासे सोचने और समझनेकी बात है, कगे और आमक्तिमे दूर रहो यह उसका मूल सूत्र है, इसी नवयुवकोंको पश्चिमी सभ्यताके पुजारी और मिथ्यात्वी मिलमिलेमें कहीं-कही एकांत-साधनाका भी उल्लेख आगया कह देनेसे समस्या हल नही हो जाती, वस्तुस्थिति यह है कि है, पर वह तो प्रासंगिक है और उमका उतना ही महत्व जब वे ससारकी गति-विधिको विशाल दृष्टिसे देखते है तब है जितना दालमें नमक, अपनी अनासक्तिको जांचते रहनेके वे पाते है कि जैनसाधु ससारकी प्रगतिमें साथ नही दे रहे लिये एकात साधना भी करनी होती है। इससे यह साबित है, और जनसेवासे भी वे अपने को अलग रखते है, नवयुवकों- नही किया जा सकता कि अनासक्त कर्म नही, एकांत साधना