SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 231
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ क्या सेवा साधनामें बाधक है ? (श्री रिषभदास रांका ) इन्दौर मे अखिल विश्व जैनमिशनके मेरे भाषणके कुछ अंशको लेकर भी दोलतरामजी 'मित्र' का अनेकांत में एक लेख निकला। उनका आक्षेप है कि मैंने "जैन साधुजनोके निष्क्रिय एकाकी साधनाकी छेडछाड की है और वह भी इस रिवाजका आश्रय लेकर कि "अपनेमे भिन्न प्रकारकी सेवा (भले ही वह अधिक उत्तम हो) करनेवालोको कुछ तो भी भला बुरा कहना ।" यो मेरी बिना सोचे-समझे कुछ कह देनेकी वृत्ति नहीं है और दूसरेको दोष देनेकी आदत भी नही है । फिर में जैनसाधु-सस्थाके प्रति आदर रखता हूं इसलिये उन्हे बुरा बताना तो मुझमे हो ही नही सकता। किन्तु श्री दौलतरामजीने मेरा ध्यान अपने शब्दोपर फिर से विचार करनेके लिये आकर्षित करनेकी कृपा की, इसलिये में उनका आभारी हू । 1 मं नही चाहता था कि इस बारेमे कुछ लिखकर वादविवादमे पडा जाय । वाद-विवाद और झगडे में पडनेकी मेरी वृत्ति नहीं है फिर भी मित्रोका आग्रह रहा कि इसपर मुझे स्पष्टीकरण करना ही चाहिए। इसमे समाजके सामने स्पष्ट रूपसे एक विषय आ जायगा । विषय व्यक्तिगत नही है। यह और ऐसी शकाये समाजके तरुणवर्गमे वासकर पाई जा रही है । श्री "मित्र" जी ने लिखा है कि "श्री" राकाजीकी बात सिर्फ उनकी अपनी निगाहमें जैन साधुओकी एकाकी निष्क्रिय साधनाका महत्व नही जचने पुरती होती तो ऐतराज योग्य नहीं थी। किन्तु वह लोक-निगाहमे उक्त माधु-साधनाका हल्कापन जबनेका प्रतिनिधित्व भी करती है। अतएव वह एतराजयोग्य है" इससे शायद वे यह कहना चाहते है कि मैने जैन साधुओंको या उनकी क्रियाओको हलकी निगाहसे देखा है और उनके प्रति अनादर या तिरस्कार भी बताया है, लेकिन बात यह नही है। मैंने जो कुछ कहा था वह इस प्रकार है : "मिशन तो हमने खड़ा कर लिया, लेकिन मिशनरी कहा है ? ऊपरके उदाहरणोंके प्रकाशमें, हमारा खयाल है हमारे साधुओंसे बढ़कर और कोई इस कामको नहीं कर सकता । अगर हम चाहते है कि जैनतत्वोका प्रचार हो। लोग जैनधर्म और समाजकी ओर आकर्षित हो तो हमें उनके लिये उपयोगी बनना होगा। जिस प्रकार ईसाई साधु प्रत्यक्ष सेवाका काम करते हैं वैसेही हमारे साधुमोको भी करना चाहिए। इसके लिये अब वैराग्यकी व्याख्याको बदलनेकी जरूरत है । यह खुशीकी बात है कि हमारे साधु पिछडे और अछूत माने जानेवाले लोगोमे मास-मदिराके त्यागका उपदेश करते है और वे लोग उनकी ओर आकर्षित भी होते है. लेकिन साधु महाराजके बिहार करनेके बाद बात जहा की तहा रह जाती है। "सामाजिक दृष्टिमे साधुओका वैराग्य इतना एकाकी हो गया है कि वे अब अनुपयोगी माने जाने लगे और गृहस्थ तो बेचारे मोहमें प्रत्यक्ष फसे रहते हैं । गृहस्थोंके पीछे पूरा ससार लगा रहता है । उनसे त्यागकी बात करना ठीक नही और साधु इतने त्यागी होते है कि समाजसे कोई वास्ता नही रखते। अगर हमारे साधु सेवाको वैराग्य माने और अनासक्त भावमे समाजकी सेवा करे तो उनसे समाजका बहुत भला हो सकता है । इस प्रत्यक्ष मेवासे वे आदरके पात्र बनेगे और विश्वका हित भी होगा। जो काम कानून और पुलिस नही कर सकती, वह साधु आसानीमे कर सकते है । समाज त्यागकी कद्र करना जानती हैं। पर ऐसे त्यागका तिरस्कार भी कर सकती हैं जो भाररूप हो जाय। हमें आशा करनी चाहिए कि समय साधुओको ऐसा सोचनेके लिये विवश अवश्य करेगा, और वे भी स्वेच्छासे, आनन्दपूर्वक प्रत्यक्ष सेवाको अपना धर्म मानने लगेगे । वैराग्यका अर्थ निष्क्रियता नही है अनासक्ति है। रेखाकित शब्दोको ध्यानपूर्वक देखनेपर सोचा जा सकता है कि जैन साधुमोको हलका तो बताया ही नही गया है, बल्कि उनकी योग्यता, त्याग और आवश्यकताको स्वीकार ही किया गया है, मेरी समझमे नही आता कि किसी भले कामका सुझाव देना भी बुरा और हलका कैसे हो जाता है ? मेरे कहनेका मतलब यह तो नही निकलता कि जो आत्मचिंतन करते हैं और आत्मकल्याण करना ही जिनका एकमात्र ध्येय है वे अपना विकास
SR No.538011
Book TitleAnekant 1952 Book 11 Ank 01 to 12
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJugalkishor Mukhtar
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year1952
Total Pages484
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Anekant, & India
File Size29 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy