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________________ किरण ४-५ ] क्या जैनमतानुसार अहिंसाकी साधना अव्यवहार्य है ? २०१ जीवन वाला हो।' रागीद्वेषी न हों। ६. लज्जालु हो, बेशरम न हो। (ग) सबसे प्रिय बोलनेवाले हों। दुर्वचनी दुर्जनोंपर ७, योग्य आहार (मद्य मास रहित) तथा विहार करने भी क्षमा करनेवाले हो। सबके गुण-ग्रहण करनेवाले हों।' वाला हो। इस प्रकार गृहस्थ और वनस्थ (मुनि-तपस्वी)की अहिंसा८, सत्संगति करने वाला हो। साधनाके प्रकार तथा चिन्ह जो ऊपर बतलाये गये है, उनसे ९. विचारक हो । स्पष्ट हो जाता है कि जैन मतानुसार अहिंसाकी अणु१० कृतज्ञ हो। साधना सर्वसाधारणजनोचित्त (गृहस्थोचित) है, व्यवहार्य ११ इंद्रियोको वशमें रखने वाला हो। है। अव्यवहार्य नही है। १२. दयालु-दानी हो। जैसे अज्ञानी, भयभीत, भूखे, अब देखना यह है कि वे कौनसी बाते है जो मुनिजनोरोगी अपंग, इन चारों प्रकारके दुःखी जीवोका साधारणतया चित होकर गृहस्थोंने अपना ली है। वे ये होनी चाहिये :यथाशक्ति दुःख दूर करनेवाला हो। और विशेषत. ब्राह्मण १ त्रस-हिसा-घातपर जहा ध्यान ज्यादा देना चाहिए होतो ज्ञान दान देवे । क्षत्रिय होतो अभयदान देवे । वश्य हो वहा कम देना और स्थावरहिंसा-घातपर ध्यान ज्यादा देने तो अन्न, औषधि दान देवे । शूद्र हो तो सेवासुश्रुषा कर देवे। का ढोग करना। १३. पाप (हिंसा, झूठ, चोरी, कुशील, परिग्रह,) २. सज्जन-अनुग्रह और दुर्जन-निग्रह पर ध्यान कम देना। से डरने वाला हो। ३. आरम्भ-जीवी (असि कृषि गोपालन वाणिज्य आदि (सा. घ. १।११) श्रमजीवी) होनेमे जी चुगकर निरारम्भी होनेका ढोग अहिंसाके महासापक वनस्थो (मुनि तपस्वियो) के करना। चिन्ह इस प्रकार है.-- ४. योग्य विषयो (पचेन्द्रियोके नियत्रित विषयो) से (क) विषयोकी आशाकी वशतासे रहित हो। आरम्भ भी मुह मोड़नेका ढोग करना; जैसे, अविवाहित रहना, और परिग्रहसे रहित हों। ज्ञान ध्यान तपमें लवलीन हों। नागरिकता-सामाजिकताका उल्लघन करना। अपुत्र रहना (ख) स्व-पर-उपकारी हो। शत्रु-मित्रमें समभावी हो, (शुक्लध्यानका हेतु जो मानव कुल है उसमे आनेवाले जीवो १ "हिंसासत्यस्तेयाब्रह्मपरिग्रहाच्च बादग्भेदात् ।। के लिये द्वार बन्द करना ) इत्यादि । द्यूतान्मासान्मद्याद्विरतिगृहिणोऽष्ट सन्त्यमी मूलगुणा ॥ निष्कर्ष यह है कि जैन गृहस्थोको चाहिए कि वे अन(आदिपुराण, जिनमेन) धिकार चेष्टाओको नही अपनावे। ताकि दुनियाका समा२ "धर्मसततिमक्लिष्टा रति वृत्तकुलोन्नति । धान हो जाय कि जैन मतानुसार अहिसाकी साधना व्यवहार्य देवादिसत्कृति चेच्छन् सत्कन्या यत्नतो वहेत् ।। है । अव्यवहार्य नहीं है। (सा. ध १६०) ४. “साधारणा रिपो मित्र माधका. स्व-परायोः । ३. "विषयाशावशातीतो निरारंभोऽपरिग्रहः । साधुवादास्पदी भूना माकारे साधका. स्मृताः ॥ ज्ञानध्यानतपोरक्तस्तपस्वी स प्रशस्यने । (रक श्रा १०) (आत्मप्रबोष ११२) "कुलजोणिजीवमग्गण-ठाणाइमु जाणउण जीवाण। ५ "मब्वत्थवि पियवयण दुव्ययणे दुज्जणेहि खमकरणं । तस्मारभणियत्तण-परिणामोहोई पढमवद (नियममार५६) मवेमि गुणगहण मदकषायाण दिळंता ।।"
SR No.538011
Book TitleAnekant 1952 Book 11 Ank 01 to 12
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJugalkishor Mukhtar
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year1952
Total Pages484
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Anekant, & India
File Size29 MB
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