________________
क्या जैनमतानुसार अहिंसाकी साधना
अव्यवहार्य है ?
(श्री दौलतराम मित्र) क्या जैन मतानुसार अहिंसाकी साधना अव्यवहार्य है ? मिलाते है और निजपदस्थ तथा शक्तिके अनुरूप यह प्रश्न एक हकीकतपरसे उपस्थित हुआ है। वह यह है- (अनुसार) महासाधनाका अभ्यास भी करते रहते है। ___ "जैन-गृहस्थोमें बहुतसा मुनिधर्म प्रवेश पा गया है। ,
अहिंसाके अणुसाधक गृहस्थके तेरह चिन्ह इस प्रकार इनके इस आचार-विचारको देखकर दूसरे-जनेतर गृहस्थलोग जैनधर्मकी अहिंसाको अव्यवहार्य समझने लगे है।"
१. न्यायसे धन कमाने वाला हो। अर्थात् जुआरी न हो, (देवेन्द्रकुमार) श्रम (आरम्भ) जीवी हो।
२. सद्गुण अथवा गुरुजन (गुणीजन-सज्जन) सेवक हो। अतएव उक्त प्रश्नका स्पष्टीकरण आवश्यक हो गया है। दर्जन-सेवक न हो। जैनमतानुसार अहिंसाकी साधना इस प्रकार है -
३. हित-मित-प्रियभाषी हो। ___अहिंसाकी न्यूनसे न्यून ( कमसे कम ) साधनाको
४. धर्म (अहिसा) अर्थ (धन) काम (पंचेंद्रिय विषय) जैसे सकल्पपूर्वक (आक्रामक) सजीवहिसात्याग अथवा इन तीनोकी परस्पर विरोध-रहित सिद्धि-प्राप्ति-करनेकषायके अल्पाश-त्यागको 'अणुसाधना' और अहिसाकी वाला हो। अधिकसे अधिक तथा पूर्ण साधनाको जैसे त्रस-स्थावर- ५. नागरिक (सामाजिक नियम पालक) तथा दाम्पत्यजीवोंकी हिसाका त्याग अथवा कषाय' के अधिकाश तथा
३. "विषयेषु सुखभ्रांतिं कर्माभिमुखपाकजां । पूर्ण त्यागको 'महासाधना' कहते है।
छित्वा तदुपभोगेन त्याज्ययेत्तान् स्ववत्परम् ॥ गृहस्थ (पाक्षिक या व्रती श्रावक ) अणुसाधना करते हैं,
(सा घ ६-२-६२) और वनस्थ ( मुनि-तपस्वी ) महासाधना करते है ।
"प्रयतेत समिण्यामुत्पादयितुमात्मज । यद्यपि गृहस्थ करते तो है अणु-साधना, कितु वनस्थ व्युत्पादयितुमाचारे स्वबत्त्रातुमथापथात् ॥ होकर महासाधना करनेका आदर्श सामने रखते है।
(सा. ध २।३०) बल्कि आदर्शकी ओर गति करनेके लिये उचित कारण "विना स्वपुत्र कुत्र स्वं न्यस्य भार निराकुलः ।
गृही, सुशिष्यं गणिवत्प्रोत्महेत परे पदे ॥ १. क्रोध, मान, माया, लोभ, तथा हास्य, रति अरति,
(सा.ध. ३।३१) शोक, भय, जुगुप्सा, स्त्री-पुरुष, नपुन्सक लिंगोंमें रागये १३ कषाय कहलाते हैं।
४. "जिनपुगवप्रवचने मुनीश्वराणां यदुक्तमाचरणं । २. "कब गृहवाससो उदास होय वन सेऊ, वेऊ निजरूप
सुनिरूप्य निजां पदवी शक्तिं च निषेव्यमेतदपि । रोकू गति मनकरीकी । रहिहो अडोल एक आसन अचल
-(पु. सि. २००) अंग, सहिहों परीषह शीत-घाम मेघ-झरीकी ॥ सारग-समाज
"सा. घ. ७५९-६०" खाज कबौं खुज है आनि, ध्यानदल जोर जीतू सेना ५. "न्यायोपात्तधनो यजन् गुणगुरून् सद्गीस्त्रिवर्ग भजमोह-अरीकी। एकल विहारी जथाजात लिंगधारी, कब अन्योन्यानुगुणं तदहंगृहिणी स्थानालयो ह्रीमयः । होऊँ इच्छाचारी बलिहारी वा घरीकी ॥ (भूधर जैनशतक) युक्ताहारविहार आर्यसमिति : प्राश : कृतज्ञो वशी "सागारधर्मामृत ६, ४२, ४३ ।
शृण्वन् धर्मविधि दयालुरघभीःसागारधर्म चरेत् ।।