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________________ २०४ अनेकान्त [ वर्ष ११ ही मुख्य है। सकें, तो और भी अच्छा । गांधीजीके शब्दोंका अर्थ भले ही दौलतरामजी अपने आजकी परिस्थितियां बदल गई है। व्यक्तिगत धर्मअनुकूल लगायें, पर उसपर विचार करने पर यही मालूम की अपेक्षा अब सामूहिक धर्मके बारेमें सोचना आवश्यक देगा कि वे उनके प्रतिकूल पड़ते है, गांधीजीने कभी अपने- हो गया है। किसी संप्रदाय या धर्म विशेषके बारेमें भी अब को पूर्ण पुरुष बतानेकी कोशिश नहीं की, यह उनका अपने सोचना सकुचित मनोवृत्तिका परिचय देना है। इसलिये अब आपको नम्र बनानेका प्रयत्न है। देशमें अनेक आत्मचिंतकों हमें अपने धर्म और धर्मकी परिभाषाको भी विशाल दृष्टिया निष्क्रिय-साधकोके रहते हुए भी देशको आजाद बनाने से बदलने और उसमें सामूहिक हितकी दृष्टि लानेकी में या लोगोंकी भलाई में गांधीजी जैसे ही अधिक उपयोगी हुए, जनताको उन पूर्ण पुरुषोसे क्या लाभ जो उसके उप सारा खेल परिणामोंका है। प्रवृत्ति हो या निवृत्ति, योगमें न आये, उनके साधनके प्रति भले ही आदर रखे बुरी-भली कोई नहीं होती। व्यक्तिका हित-अहित परिणामोंपर प्रत्यक्ष हित करनेवालेकी ही समाजको जरूरत है। पर निर्भर है। एकांत साधक भी विकारोंके वशीभूत होकर आत्म-कल्याणके लिये घरबारको छोड़कर जगलमें चले नीचे गिर सकता है और जनकल्याणके कामोंमें उलझा जानेका यह अर्थ भी हो सकता है कि एकातमें जानेवाले दीखनेवाला व्यक्ति भी शुद्ध परिणामोंके कारण ऊपर उठ को डर है कि वह अनासक्त या निर्लेप नही रह सकेगा, ब्रह्म सकता है। फिर भी अपनी-अपनी वृत्ति, संस्कार, रुचिके चर्यकी रक्षाके लिए स्त्रीको छोडकर चले जानेवालेकी अनुसार मार्ग अपनाया जाना चाहिये और उसीमें परिणामोंअपेक्षा स्त्रीके साथ रह कर भी ब्रह्मचर्य की रक्षा करनेवाला को अविकारी रखना चाहिये। किसी भी एक मार्गका अधिक योग्य, साहसी और दृढ माना जावेगा, क्योकि वह आग्रह रखना योग्य नही होगा, हर व्यक्ति अपने लिये जो कसौटी पर खरा उतरता है। यह सही है कि राग-द्वेषमे मुक्त योग्य मार्ग जंचे वह स्वीकार करे । हुए बिना कोई आत्मकल्याण नही कर सकता। मैने कहा है। कि जो काम कानून नही कर सकता वह साधु कर सकते है मेरा यह दावा नही है कि मेरे विचार ही सत्य है और लोमोंका हृदय परिवर्तन तो साधु कर सकते है। आदमियत ससारका हर छद्मस्थ प्राणी ऐसा दावा नही कर सकता, जगा सकते है। एक दूसरेकी सेवाके लिये तैयार कर सकते किसी भी विषय पर अनेक पहलुओसे विचार होता आया है। सच बात यह है कि जबतक "स्व" से ऊपर नही उठा है, हो रहा है और होगा, भाई दौलतरामजीने इस चीजको जायेगा तबतक व्यापकता नही आयेगी, व्यष्टिसे समष्टि और समझनेके लिये प्रेरित किया, अत: उनका आभारी हूं, बड़ी है। केवल आत्मकल्याण भी तो एक प्रकारका स्वार्थ मैने अपना दृष्टिकोण अधिक स्पष्ट करनेका प्रयत्न किया है, है। फिर आत्मकल्याण करते-करते दूसरोंकी भलाई कर नही जानता कहा तक इसमें सफल हुआ है। भूल सुधारत तीसरी किरण के पृष्ठों पर भूल से कुछ पृष्ठ संख्या २३५ से २६८ तक छप गई है उसके स्थान पर पाठक १३५ से १६८ तक पृष्ठ लेने की कृपा करें। -प्रकाशक
SR No.538011
Book TitleAnekant 1952 Book 11 Ank 01 to 12
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJugalkishor Mukhtar
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year1952
Total Pages484
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Anekant, & India
File Size29 MB
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