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________________ कविवर भगवतीदास और उनकी रचनाएँ (पं० परमानन्द जैन शास्त्री) हिन्दी भाषाके अनेक प्रसिद्ध जैन कवि हो गए है। उनमें थे। कविने अपनी अधिकांश रचनाएं बादशाह जहांगीरके पंडित भगवतीदासका नाम भी खासतौरसे उल्लेखनीय है राज्यमें रची है । जहांगीरका राज्य सन् १६०५ (वि० सं० जो कुशल कविथे। आपकी प्रायः सभी रचनाए हिन्दी भाषामें १६६२) से सन् १६२८ (वि० स० १६८४) तक रहा है। हुई है। परन्तु सबसे अन्तिम रचना 'मृगांकलेखाचरिउ' और अवशिष्ट रचनाए शाहजहांके राज्यमें जो सन् १६२८ अपभ्रंशभाषामें हुई है। यद्यपि उसमें भी हिन्दी भाषाके और (वि० सं० १६८४) से सन् १६५८ (वि० सं० १७१५) तक देशी भाषाके शब्दोंकी प्रचुरता पाई जाती है। इनकी उपलब्ध रहा है, रची गई है। रचनाओंमें कितनी ही कृतियां आत्मसम्बोधनार्थ लिखी गई यद्यपि ये सब रचनाए जिनमें रास अथवा रासककी है। आपकी अबतक २३ रचनाओका मुझे पता चल सका है। सख्या अधिक है, छोटी-छोटी स्वतन्त्र कृतिया है। उनमें कितनी संभव है इनके अतिरिक्त और भी इनकी कृतियां शास्त्रभडारो ही रचनाए भावपूर्ण और ललित प्रतीत होती है और उनका में कही पर उपलब्ध हो। एकमात्र लक्ष्य स्व-पर-बोध कराने का प्रतीत होता है । कविने अपनी सभी रचनाएं निस्वार्थभावसे रची है, वे किसीकी कवि भगवतीदास अग्रवाल कुलमे उत्पन्न हुए थे। खास प्रेरणासे नही रची गई है । और उनकी रचना विभिन्न इनका गोत्र 'बंसल' था। यह बूढ़िया' जिला अम्बालाके स्थानोपर सहजादिपुर (देहली-शाहादरा), सकिसा, कपिनिवासी थे। इनके पिताका नाम किसनदास था। इन्होने स्थल (कैथिया) जिला फर्रुखावाद आगरा और हिसार चतुर्थवयमे मुनिव्रत धारण कर लिया था। यह बूढ़ियासे आदि रमणीय स्थानोपर रची गई है। यह उन रचनाओके जोगिनीपुर (देहली) चले गये थे। उस समय देहलीमे अकबर अन्तिम प्रशस्ति-सूचक पद्योसे सहज ही ज्ञात हो जाता है। बादशाहके पुत्र जहागीरका राज्य था। और उस समय कविने अपनी चार रचनाओमे उनका रचनाकाल दिया है, देहलीकी प्रसिद्ध भट्टारकीय गद्दीपर मुनि महेन्द्रसेन विराज- शेष रचनाओमें वह नही पाया जाता। उनमें 'चनड़ी' मान थे। मुनि महेन्द्रसेन भट्टारक सकलचन्द्रके पट्ट शिष्य थे नामक रचना कविने संवत् १६८० म बनाकर समाप्त और भट्टारक गुणचन्द्रके प्रशिष्य थे। उस समय देहलीमे २ सोरठा-देस कोस गजिबाज, जासुन महि नप क्षत्रपति। मोतीबाजारमे जिनमन्दिर था, जिसमें भगवान पार्श्वनाथकी जहागीरको राज, सीतासतु में भनि किया ।। ८० मूर्ति विराजमान थी, और वहा अनेक गुणी एवं सुजन श्रावक- गुरु गुणचन्द आनन्दसिन्धु बखानिये, जन जिनपूजा आदि षट्कर्मोका नितप्रति पालन करते थे। सकलचन्द तिस पट्ट जगत तिम जानिये। विनय तथा विवेकसे मुनियोको दान देते थे। गुणी पडितजनों तासु पट्ट जमु नाम खमागुन मंडणों, का सन्मान करते थे और करुणावृत्तिसे निर्धनोको धनका पर हां-गुरु मुनि माहिदमेन मुणहु दुख खंडणो॥८१ दान भी देते थे। इसकारण जगतमें उनका निर्मल यश गरु मनि माहिदसन भगौती, तिस पद-पंकज रन भगौती। व्याप्त हो रहा था । वहा ही कवि भगवतीदास निवास करते किमनदास वणिउतनुज भगौती,तुरिये गहिउ व्रतमुनिजुभगौती ... ..... नगर बूढिये वसै भगौती, जन्मभूमि है आसि भगौती । १. बूढिया पहले एक छोटी-सी रियासत थी, जो धन- अग्रवाल कुल बंसल गोती, पंडितपद जन निरख भगौती। ८३ धान्यादिसे खब समद्ध नगरी थी। जगाधरीके बस जानेसे जोगनिपुर परि राजै, राय-रवीरि नित नीवत बाजे । बूढ़ियाकी अधिकांश आबादी वहांसे चली गई, आजकल प्रतिमा पार्श्वनाथ धनवंता, नागर नर पवर मंतिवंता॥ ८४ मोतीहट जिनभवन विराज, प्रतिमा पाश्वनाथकी साजै । वहां खंडहर अधिक हो गये है, जो उसके गतवैभव की स्मृति थावक सुगुन सुजान दयाल, पट जिय जाम कर प्रतिपाल॥८५ के सूचक है। --वृहत्सीतासतु, सलावा प्रति
SR No.538011
Book TitleAnekant 1952 Book 11 Ank 01 to 12
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJugalkishor Mukhtar
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year1952
Total Pages484
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Anekant, & India
File Size29 MB
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