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की है । अन्य उन्नीस रचनाएं भी संभवतः सं० १६८० या उससे पूर्व बन चुकी थीं क्योंकि कविने स्वयं उन्हें संगत् ; १६८० में जहांगीरके राज्यमें सांचीमें लिखकर समाप्त की हैं। उनके नाम और संक्षिप्त परिचय इस प्रकार है :
१ 'टंडाणारास ———यह सबसे छोटी रचना है । इसमें बतलाया है कि यह स्याना जीव अपने दर्शन ज्ञानचारित्रादि गुणोंको छोड़कर अज्ञानी बन गया और मोह मिथ्यात्वमें पड़कर निरंतर परवा हुआ चतुतिरूप संसारमें भ्रमण करता है। इसे छोड़कर तू धर्म शुक्ल रूप अनुपम ध्यान धर, और केवलज्ञानको प्राप्त कर शाश्वत निर्वाण सुखको प्राप्त कर। जैसाकि उसके अन्तिम पदसे प्रकट है :
अनेकान्त
[ वर्ष ११
आठवीं रचना 'मनकरहा रास' है। यह एक रूपक खंड रचना है, इसकी पद्य संख्या २५ हैं जिनमें जीवरूपी मनकरहाके चौरासी लाख योनियोंमें भ्रमण करने और जन्ममरणके असह्य दुःख उठानेका विवरण देते हुए कविने उससे छूटने का उपाय बतलाते हुए लिखा है कि जब यह जीव शिवपुरको पा लेता है तब फिर इसका जन्ममरण नही होता। यह वहां अनन्तचतुष्टय रूप निराकुल अविनाशी सुखमें मग्न रहता है। यह रास सहजादिपुरमे बनाकर समाप्त किया गया है । नोवी रचना 'रोहिणी व्रत रास' है, इसमें ४२ पद्य हैं। दशवीं रचना 'चतुर बनजारा' है जिसमें ३५ पद्म निहित है। प्यारहवी रचना 'द्वादश अनुप्रेक्षा' जिसमें १२ पद्यों द्वारा संसारदशाका चित्र प्रकट करते हुए उससे विरागी होने की शिक्षा दी गई है । बारहवी रचना 'सुगंधदशमी कथा' है। जिसमे ५१ पद्योंद्वारा सुगध दशमी व्रत पालनके फलका उल्लेख किया गया है तेरहवी रचना आदितवार कया है जिसे रविव्रत कथा भी कहते है। इसमें भी उक्त व्रतके अनुष्ठानकी चर्चा और फलकी महत्ता बतलाई गई है। चौदहवीं रचना 'अनथमी कया है जिसमें २६ पचों द्वारा रात्रि भोजनसे हानि और उसके त्याग लाभकी महत्ता बतलाई गई है। पन्द्रहवी रचना 'नही' अथवा 'मुकतिरमणिकी चुनड़ी' है। यह भी एक दिलचस्प रचना है। चूनड़ी एक उत्तरीय वस्त्र है जिसे स्त्रियां अपने शरीरपर ओखती थी। राजपूताना और मध्यप्रातमें इसका रिवाज अब भी कही कही देखा जाता है, अन्य प्रातोसे अब उसका रिवाज संभवतः नष्ट हो गया जान पड़ता है। चुनड़ी एक रंगीन वस्त्र है। कविने उसे 'मुक्ति रमणी' की चूनड़ीकी उपमा दी है और उसे भवतारिणी बतलाया है । साथ ही सम्यक्त्वरूप उस विसाहले वस्त्रको ज्ञानरूप सलिल (पानी) के साथ भिगोकर और साजि (सज्जी) लगाकर रंगनेका उपक्रम किया है। इस रचनाको कविने अपनी जन्मभूमि बूढिया नगरमें रचा है, जो पहले एक छोटी-सी रियासत थी और उस समय सुन्दर भवनोसे सुशोभित थी। आज इस नगरका अधिकाश भाग खण्डहरके रूपमे पड़ा हुआ है जो अपने गत गौरवपर आसु बहा रहा है। कविता अच्छी है। और वह सं० १९८० में जहांगीरके राज्यमे रची गई है। सोलहवी रचना 'वीर जिनिन्द गीत है इसमें भ० महावीर की स्तुति की गई है । सत्रहवी रचना 'राजमती नेमीसुरहमाल' है। इसमें राजमति और नेमिनाथ के जीवन परिचयको अंकित किया गया है। अठारहवी रचना 'सज्ञानी हमाल'
परि ध्यानु मनूयम, सहि निजु केवलनाणा । जंपति दासभगवती पावहु, सासउ-सुहु निव्वाणा वे ।।" २. दूसरी रचना 'आदित्यव्रत रास' है, इसमें २० पद्म दिये हुए हैं। तीसरी रचना 'पखवाडा रास' है जिसमें पन्द्रह तिथियों में क्या कुछ विचार करना चाहिए यह बतलाया गया है, इसमें २२ पद्य है, रचना साधारण है। चौथी रचना 'दशलक्षणरास' है, जिसमें उत्तम समादि दशधमका स्वरूप निर्दिष्ट किया गया है। इसमें ३४ पद्य है। पांचवी रचना 'खिचडीरास' है, इसमें ४० पच है। रचना साधारण होते हुए मी भावपूर्ण है। छठी रचना 'समाधि रास' नही बल्कि कविने 'साबुसमाधि- रानू भणेस' वाक्य द्वारा उसे साधु-समाधिरास' बतलाया है | सातवी रचना 'जोगीरास' है । इसके पद्योंकी संख्या ३८ है, जिनमें बतलाया गया है कि यह जीव भ्रमके कारण भववनमे भटक रहा है इसने शिवपुरकी सुधको विसार दिया है और अतीन्द्रिय आत्म-सुखको छोड़कर पंचे न्द्रियो के विषयों में लुभा रहा है। कविने जीवकी इस महती और पुरातन भूलका दिग्दर्शन कराते हुए अपने आंतरिकघटमें बसे हुए उस चिदानन्द स्वरूप आत्माके देखनेकी प्रेरणा की है। साथ ही, मनको स्थिर कर, ध्यान द्वारा उस शिवनायकके
नेकी प्रेरणा भी की है जिससे जीवात्मा भव-समुद्रसे पार हो जाय, जैसा कि उसके निम्न पद्योंसे प्रकट है:"हो तुम पे भाई, जोगी जगमहि सोई । घट-पट अन्तरि बस चिदानंद नसलिए कोई भव-वन-भूल रही भ्रमिरावल, सिवपुर-सुध विसराई । परम अतींद्रिय शिव-सुख-तजिकरि, विषयनि रहिउ लुभाई । अनंतचतुष्टय-गुण-गण राजहिं तिन्हकी हजं बलिहारी । मनिषरि ध्यानु जयहु शिवनायक, जिउं उतरहु भवपारी ॥"