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किरण ४-५]
कविवर भगवतीदास और उनकी रचनाएँ
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है। उन्नीसवीं और बीसवी रचनाएं 'आदिनाथ और शांतिनाथ' नन्ही बूद शरत सरलावा, पावस नम आगमु दरसावा । के स्तवन है।
दामिनि दमकत निशि अंधियारी,विरहनि काम-वान उरिमारी। इन रचनाओं के अतिरिक्त निम्न तीन रचनाएं और भुगवर्हि भोगु मुनहिं सिख मोरी, जानत काहे भई मति भोरी। है, लघुसोतासतु, अनेकार्थनाममाला और मृगांकलेखा- मदन रसायनु हइ जगसारु, संजमु-नेमु कथन विवहारु । चरित । जिनका संक्षिप्त परिचय निम्न प्रकार है- दोहा-जब लगु हस शरीरहि, तब लगु कीजइ भोगु । ___लवु-सोतासतु--इस ग्रन्यमें सीताके सतीत्वका अच्छा राज तहिं भिक्षा भहि, हउं भूला सबु लोगु । चित्रण किया गया है, और उसमे बारहमासोके मंदोदरी-सीता सोरठा-सुखविलसहि परवीन, दुखदेहि ते बावरे । प्रश्नोत्तरके रूपमें जो कुछ भी भाव सकलित किये गये है। मिउ जल छडे मीन, तडफि मर्राह थलि रेतकइ । उनसे रावण और उसकी पट्टरानी मदोदरीकी कलुषित चित्त- पुनिहां-यहु जग जीवन लाहु न मन तरसाइये। वृत्तिका सहज ही परिचय मिल जाता है। साथ ही, उससे तिय पिय संजोगि परमसुहु पाइये । सीताके दृढ़तम सतीत्व और पतिव्रतधर्म-सम्बन्धी मुदृढ़ जो हु समझण हारू तिसहि सिख दीजिये। भावनाका मूर्तिमान चित्रपट हृदय पटल पर अंकित हो जाता जाणत होइ अयाणु तिहि क्या कीजिये ॥१॥ है। कथानक बड़ा ही सुन्दर और मनोमोहक है। कविने पहले
(सीता) स० १६८४मे जहागीरके राज्यमे 'वृहत्सीतासतु' बनाया था, शुकनासिक मृग-दृग पिक-बइनी,जानुकि वचन लवइ सुखिरइनी परन्तु एकतो वह रचना बड़ी हो गई थी, एक ही दिनमे पूरी अपना पिय पइ अमृत जानी, अवर पुरुष रवि-दुग्ध समानी॥ नहीं पढ़ी जा सकती थी, दूसरे उसमें रोचकता भी उतनी पिय चितवनि चितु रहइ अनदा, पिय गुन सरत बढ़त जसकंदा। आकर्षक नही थी। इसीसे कविने उसे ही सक्षिप्त करके प्रीतम प्रेम रहइ मनपूरी, तिनि बालिमु संगु नाहिं दूरी! देशभाषामें चौपाई बद्ध किया था । और अन्य सब जिनि परपुरिष तिया रति मानी ... . . . . . . ....! छन्दोंको छोड़कर केवल बारह महीनोके संवाद-सूचक करत कुशील बढ़त बहु पापू, नरकि जाइ तिउं हइ सतापू । छन्द ही रक्खे थे। इस ग्रन्थकी रचना स० १६८७ चैत्र जिउ मधु विदुतनूमुख लहिये, शील विना दुरगति दुख सहिये। शुक्ला चतुर्थी चदवारके दिन भरणी नक्षत्रमें "सिहरदि कुशल न हुइ परपिय रसवेली, जिउ सिसुमरइ-उरगसिउ खेली नगर मे' (दिल्ली-शहादरा में) की गई थी' पाठकोकी जान- दोहरा-सुख चाहइ ते बावरी, परपति सग रतिमानि । कारीके लिये आषाढमासका प्रश्नोत्तर नीचे दिया जाता जिउ कपि शीत विया मरइ, तापत-गुजा आनि ।
सोरठा--तृष्णा तो न बुझाइ, जलु जब खारी पीजिये । तब बोलइ मदोदरी रानी, रुति अषाढ़ धनघट घहरानी। मिरगु मरइ धपि धाइ, जल धोखइ थलि रेतकइ । पीय गए ते फिर घर आवा, पामरनर नित मन्दिर छावा। पुनिहां-पर पिय संगु करिनेहु मुजनमु गमावना । लहि पपीहे दादुर मोरा, हियरा उमग धरत नहि मोरा। दीपगि जरइ पतगु मुपेखि सुहावना। बादर उमहि रहे चौपासा,तिय पिय विन लिहि उसन उसासा। पर ग्मणी रसरंग न कवणु नर मुहु लहइ ।
१ इन्द्रपुरी सम सिहरदि पुरी, मानवरूव अमरद्युति दुरी जब कब पूरी हानि सहति जिह अहि रहइ ।। २ ।। अग्रवाल श्रावक धनवन्त, जिनवर भक्ति कर्राह समकंत। अनेकार्थनाममाला-यह एक पद्यात्मक कोष है जिसमें तह कवि आइ भगोतीदासु, सीतासतु भनियो पुनि आसु । एक शब्दके अनेकानेक अर्थोका दोहोमे संग्रह किया गया है। बहु विस्तरू अरु छंद घनेरा, पढ़न प्रेम बाढई चित केरा। कविकी यह रचना भी पंचायती मन्दिर देहलीके शास्त्र भडारएक दिवस पूरन दे नाही, अति अभिलाष रइह मनमाही।। के एक गुटकेमे लिखी हुई है। गुटका प्राचीन है और वह कोई दोहा-तिहि कारण लघु सतु करयो, देस चौपई भास । ३०० वर्षमे भी अधिक पुराना लिया हुआ जान पड़ता है।
छंद जूम सबु छाडिकड, राख बारह मास । लिपि पुरानी साफ तथा सुन्दर है। परन्तु कही कही लिपिसोरठा-संवतु मुणहु सुजान सोलहसइस सतासियइ । सम्बन्धि अशुद्धियां जरूर खटकती है जिन्हें किसी दूसरी चैति सुकल तिथिदान, भरणी ससि दिन सो भयो। प्रतिपरसे मशोधित करनेकी आवश्यकता है। ग्रन्थमें कवि
-प्रशस्ति लघुसीतामतु ने अपना कोई परिचय नही दिया, किन्तु उसके रचना समयके