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________________ २०८ बनेकान्त [वर्ष ११ साथ अपनी उक्त गुरु परम्पराको ही दुहराया है। इस ग्रन्थ- दीपु कुपु कज्जल पवनु, मेघु सलिलु सब भुंग की रचना कविने सं० १६८७ में आषाढ़ कृष्णा तृतिया गुरुवार- कवि सुभगौती उच्चरइ, ए कहियत सारग के दिन श्रवण नक्षत्र में शाहजहांके राज्यकालमें 'सिहरदि' गोषर गो तरु गो दिशा, गो किरणा आकास । (देहली-शहादरा) नामके नगरमें बनाकर समाप्तकी है। गो इंद्री जल छन्द पुनि, गो वानि जन भास ॥५॥ इस ग्रन्थमें तीन अध्याय है और वे क्रमशः ६३,१२२ मृगांकलेखाचरित-इस ग्रन्थमें कविने चन्द्रलेखा और और ७१ दोहोंकी संख्याको लिये हुए हैं। यह कोष हिन्दी- सागरचन्द्रके चरितका वर्णन करते हुए चन्द्रलेखाके भाषा भाषी जनताके लिये बहुत ही उपयोगी है। शीलव्रतका महत्व ख्यापित किया है । चन्द्रलेखा अनेक विइसकी रचना कवि बनारसीदासजीकी नाममालासे १७ पत्तियोंको साहस तथा धैर्यके साथ सहते हुए अपने शीलव्रतवर्ष बाद हुई है। अनेकार्थ शब्दोंका हिन्दीमें ऐसा पद्यबद्ध से जरा भी विचलित नही हुई, प्रत्युत उसमें स्थिर रहकर सुन्दर कोष अबतक मेरे देखने में नही आया। कविवर भगवती- उसने सीताके समान अपने सतीत्वका अच्छा और दासकी यह भारतीय हिन्दी साहित्यको अनुपम देन है । ग्रन्थ- अनुपम आदर्श उपस्थित किया है। की रचना सुन्दर और सरल है। पाठकोंकी जानकारीके लिये कवि भगवतीदासने इस ग्रन्थको हिसार नगरके 'सारंग और 'गो' इन दो शब्दोंके वाचक अनेक अर्थोंवाले भगवान वर्धमान (महावीर) के मन्दिरमें विक्रम संवत् पद्य नीचे दिये जाते है, जिनसे प्रस्तुत कोषके महत्वका १७०० में अगहन शुक्लापंचमी सोमवारके दिन पूर्ण किया है। सहज ही पता चल जाता है : उस समय वहां मन्दिरमे ब्रह्मचारी जोगीदास और प० करकटु कामु कुरगु कपि, कोकु कुंभु कोदंडु । गंगाराम उपस्थित थे। इस ग्रन्थकी भाषा अपभ्रश है, कंजर कमल कुठारु हलु, झोडु कोपु पविदंडु ॥५॥ ठेठ हिन्दी नही । इससे यह स्पष्ट हो जाता है करटु करमु केहरु कमठु, कर कोलाहल चोरु । कि अपभ्रशभाषाका साहित्य आज भी ईसाकी ७वी सदीकंचन काकु कपोतु अहि, कंबल कलसरु नीरु ॥६॥ से १७वी सदी तकका उपलब्ध हो रहा है । यद्यपि उसमे खगु नगु चातिगु खंग खलु, खरु खोदनउ कुदालु । हिन्दीका बहुत कुछ अंश गभित पाया जाता है, परन्तु उससे भूधरु भूरुह भुवनु भगु, भटु भेकजु अरु कालु ॥७॥ हिन्दीके क्रमिक विकासका इतिवृत्त सामने आ जाता है मेखु महिषु उत्तिम पुरुसु, वृषु पारस पाषानु । और उससे अपभ्रंशभाषाके एक हजार वर्ष तक साहित्यिक हिम जमु ससि सूरजु सलिलु, बारह अंग बखानु ॥८॥ भाषा बने रहनेका परिणाम भी प्रकट हो जाता है। अपभ्रंशने ही हिन्दी, जूनी गुजराती और मराठी आदि प्रातिक १ सोलह सयरु सतासियइ, साढि तीज तम-पाखि । भाषाओंको जन्म दिया है। और स्वय वह हिन्दी भाषाके गुरु दिनि श्रवण नक्षत्र भनि, प्रीति जोगु पुनिभाषि ॥६६॥ पावन रूपमें परिणत हो गई है। इस भाषाके क्रमिक विकाससाहिजहाके राजमहि सिहरदि नगर मझारि । का इतिवृत्त लिखे जानेकी अत्यन्त आवश्यकता है। साथ ही, अर्थ अनेक जुनामकी, माला भनिय विचारि ॥५७॥ उसके अप्रकाशित विशाल साहित्यको आधुनिक ढंगसे प्रकाशगुरु गुणचन्द अनिंद रिसि, पंच महाव्रतधार । मेलानेकी सख्त जरूरत है। सकलचन्द्र तिस पट्ट भनि, जो भवसागर तार ॥६॥ .. ___ वीर सेवा मन्दिर, ता० ६-७-५२ तासु पट्ट पुनि जानिये, रिसि मुनि माहिंदसेन । १ घत्ता-सगदह सवदतीह तहा, विक्कमराय महप्पए । भट्टारक भुवि प्रगट जसु, जिनि जितियो रणि मन ॥६॥ अगहणसिय पंचमि सोमदिणे, पुण्ण ठियउ अवियप्पए । दुबइ-चरिउ मयंकलेह चिरुणदउ जाम गयणि-रवि-ससिहरो तिह ज. . . . . . . .सिह, काव । सुभगाताबासु । मंगल मारुइ वइजणि मेइणि, धम्मापसंगा हिदकरो॥ तिनि लघुमति वोहा करे, बहुमति करहु न हासु ॥७॥ गाथा-रइओकोट हिसारे जिणहरि बरवीर बड्ढमाणस्स । लघु दीरष मात्राचरण, शबद-भेद अवलोइ। तत्थ ठिओ वयधारी जोईदासो वि बंभयारी ओ॥ बुधिजन सबइ संवारियहु, हीनु अधिक जहें हो ॥१॥ भागवई महुरीया बत्तिगवर वित्ति साहणा विण्णि इति श्री अनेकार्थनाममाला पंडित भगोतीदास कृत मइविबुध सुगंगारामो तत्थ ठियो जिणहरेसु मइवतो। ससिलेहा सुय बंधु जे अहिउ कठिण जो आसि। बोहाबंध बालबोष देशभाषा समाप्त। महुरी भासउ देसकरि भणिउ भगोतीदासि ।।
SR No.538011
Book TitleAnekant 1952 Book 11 Ank 01 to 12
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJugalkishor Mukhtar
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year1952
Total Pages484
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Anekant, & India
File Size29 MB
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