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________________ श्रमण- प्रायोग्य परिग्रह ( क्षुल्लक सिद्धिसागर ) आजसे कोई ढाई हजार वर्ष पहिले श्रीगौतम स्वामीने जोकि भगवान् वर्द्धमानके - महावीर स्वामीके - मुख्य गणधर थे अपने स्वरचित प्राकृत प्रतिक्रमणसूत्रमें उस परिग्रहका जो सब प्रकारसे गृहस्थोके योग्य है, श्रमणोके योग्य नही 'असमण - पाउग्ग-परिम्गह के नामसे उल्लेख किया है । आचार्य प्रभाचन्द्र इसकी टीकामे लिखते है: " न श्रमणा अश्रमणा गृहस्थास्तेषा प्रकर्षेण आ समंताद्योग्यं त न गृह्णीयात् ।" अर्थात् जो श्रमण नही वे अभ्रमण गृहस्य है, उनकेलिये प्रकर्षरूपसे तथा सब ओरमे जो परिग्रहयोग्य हैजो गृहस्थोके ही वास्तवमे होता है-उसे महाव्रती श्रमण ग्रहण न करें । गौतम स्वामि-विरचित मूलसूत्र-पाठ में लिखा है" तत्थ बाहिर परिग्गहं से हिरण्ण वा सुवण्ण वा धणं वा खेत्तं वा खल वा वत्यु वा पवत्थु वा कोम वा कुठारं वा जाण वा जपाण वा जग वा गद्दियं वा रहं वा सदणं वा सिवियं वा दासी दासगो-महिस-गवेडय मणि - मोतिय-सख - सिप्पि-पवालय मणिभाजण वा सुवण्णभाजण वा रजतभाजण वा कंसभाजण वा लोहभाजण वा तंबभाजण वा अडज वा तसरिचीवर वोडजं ( कार्पासवस्त्र) रोमज वा वक्कज वा चम्मज वा अप्पं वा बहु वा अणु वा सचित्त वा अचितं वा अमुत्य वा बहित्य वा अविवालग्गकोडिमित्तं पि णेव सयं असमणपाउग्ग परिग्गह गिव्हिज्ज :.... ।" उक्त परिग्रहोंमेंसे यदि किसी परिग्रहको कोई ग्रहण करता है तो वह श्रमण निर्ग्रथ या महाव्रती नही होता, क्योंकि उक्त परिग्रहको अश्रमणताका प्रतीक कहा गया है । वह वास्तवमें गृहस्थ है । इससे यह साबित होता है कि श्रमणोंके सिवाय श्रावक श्राविका क्षुल्लक ऐलक क्षुल्लिका आर्यिका ये सब सागार लिंग है, क्योंकि महाव्रत या सकल व्रतके विरुद्ध ये वस्त्रादिक संगसे युक्त है। स्वामी समंतभद्रके निम्न वाक्योंसे भी यही बात पुष्ट होती है सकलं विकलं चरणं तत्सकलं सर्वसंगविरतानां, अनगाराणं, विकलं सागाराणां ससगानाम् । अर्थात् जो सर्वसगसे अन्तरग परिग्रहके साथ वस्त्रादिक दस प्रकारके बाह्य परिग्रहोसे रहित है वही सकल व्रती हो सकता है, जब तक इन परिग्रहोका त्याग नही करता तबतक वह सगसहित है । जो ससग है वही सागार है-गृहस्थ है । समूचे प्रतिक्रमणसूत्रमें ऐलक और आर्यिकाका कोई उल्लेख नही है किन्तु गृहस्थ धर्मका उल्लेख किया है। उससे यह अच्छी तरहसे जाना जा सकता है कि उनका अन्तर्भाव क्षुल्लक (देशसयत ) और क्षुल्लिका ( देशसंयती) में हो जाता है। शेष देशव्रती या अव्रतियोंका अन्तर्भाव श्रावक और श्राविकाओमे हो जाता है । गौतमस्वामी प्रतिक्रमण सूत्रमें कहते है : "इह खलु समणेण भयवदा महदि महावीरेण महाकरसवेण सव्वण्हणाणेण सव्वलोयदरसिणा सावयाणं सावियाण खुड्डयाणं खुड्डीयाण कारणेण पचाणुब्वदाणि तिण्णि गुणव्वदाणि चत्तारि सिक्खावदाणि वारसविह गिहत्यधम्म सम्मं उबदेसियाणि । ” "जो एदाइ वदाइ घरेइ सावया सावियाओ वा खुड्डय खड्डियाओ वा अट्ठदह् भवणवासियवाण-वितरजोइमिय-मोहम्मीमाण देवीओ वदिक्कमित्तउवरिम अण्णदरमहा देवेमु उववज्जंति । तं जहा - मोहम्ममाण मणक्कुमार म. हिदबभबंभूत्तर-लांतवका पिट्ठ मुक्क-महामुक्क मनार महस्मार आणत पाणतआरण- अच्चुन कप्पेमु उववज्जन्ति ।" ऐलक और आर्यिकाका उत्पाद सोलहवें स्वर्ग तक ही होता है अतः इनका भी उन्ही श्रावक श्राविकाओंमें अन्तर्भाव हो जाता है जिनके उत्पादका कथन उक्त सूत्रमें किया गया है। क्योकि वे भी मागारधर्म या विकलचारित्रसे युक्त है। 'खड्डय' शब्दका अर्थ 'क्षुल्लक' होता है। क्षुल्लक शब्द नवीन नही है अपितु अत्यन्त प्राचीन है । । ढाई हजार वर्ष पहिले देशयति जो ग्यारह प्रतिमाओमे युक्त थे, क्षुल्लक १. महाकाश्यप- महान् तेजके रक्षक हैं।
SR No.538011
Book TitleAnekant 1952 Book 11 Ank 01 to 12
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJugalkishor Mukhtar
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year1952
Total Pages484
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Anekant, & India
File Size29 MB
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