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अश्रमण-आयोग्य परिग्रह
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कहलाते थे। चाहे वह प्रथम आर्य शुल्लक हो चाहे द्वितीय ऐलक आर्य शुल्लक हो। 'आर्या' शब्दका प्रयोग जाये स्त्रीके लिये होता है। जो ग्यारह प्रतिमाओं से युक्त आर्या है वह । 'क्षुल्लिका 'कहलाती है। उसके दो भेद है प्रथम क्षुल्लिका नामकी आर्या और दूसरी क्षुल्लिका नामकी आर्थिका ।
ऊपर उद्धृत प्रतिक्रमणसूत्रके वाक्यमें जिन बाह्य अश्रमण- प्रायोग्य परिग्रहोका उल्लेख किया गया है वे उपलक्षणसे मी युक्त है, उनके सदृश्य अन्य जितने भी घड़ी चश्मे पीतल, जस्त रुपये पैसे आदि परिग्रह है वे सब भी महावती साधुओकेलिये अग्राह्य है जैसा कि पं० अजितकुमार शास्त्रीके जैन गजटमे प्रगट हुए लेखने जाहिर है। इस विषय में पं० कैलाशचन्द्रका "भगवान महावीरका अचेलक धर्म" पढ़ने योग्य है। गौतमस्वामीने भी इस प्रतिक्रमणसूत्र में 'अचेलक' शब्दकेद्वारा वस्त्रके त्यागका उल्लेख किया है।
जो सचेल है वह धमण नही है। सचलतासे उसके पहिनने ओढने आदि से ममत्व रूप कारणका सद्भाव सिद्ध होता है। वस्त्र रखनेसे असयम भी अवश्य ही होता है। वह वस्त्र के फ्रक और फिनसे रहित नहीं है अतः वास्तवमें श्रमण या फ़कीर नही है ।
यह अचेलक धर्म नवीन भी नही है, प्रवाहकी अपेक्षा यह अनादिसे चला आ रहा है, जैसे कि उत्पन्न होने वाला मारा जगत् नग्न उत्पन्न होता है। जो निर्विकार हो जाता है उसे वस्त्र धारण करनेसे क्या ? जब विकार उत्पन्न होता है उसे छुपाने के लिये वस्त्र धारण कर लेते है । लज्जा एक कषाय है उसको जो नही जीत सका है उसे वस्त्रकी आवश्यकता है किन्तु जिसने विकारके साथ लज्जा वायको छोड़ दिया है उसे वस्त्रसे क्या ? अन्तरंग परिग्रहका कार्य बाह्य परिग्रहका ग्रहण है, क्योकि वे बाह्य परिग्रह अन्तरंग परिग्रहके रहे बिना ग्रहण नहीं किये जा सकते है।
[ किरण ४-५
त्यागने पर ही निर्धन्य होकर मुक्त होता है। वस्त्र और पात्रका ग्रहण अशक्त लोगोंने श्रमणपदमें स्थिर नही रह सकनेके कारण किया है।
बाह्य परिग्रह अन्तरंगकी कक्षाओंको उत्पन्न नहीं करता है। बाह्य परिग्रह अन्तरंग परिग्रहके उत्पन्न करनेमें कारण नही है, बाह्य परिग्रहके न रहनेपर भी कोई कोई साधु क्रोधी देखा जाता है। अतः बाह्य परिग्रहका ग्रहण अन्तरंगकी कवायोंका कार्य है, कारण नहीं है। यदि है भी तो यह उपचारसे है अविनाभाव रूपसे नही है । जो बाह्य परिग्रहको ग्रहण करता है वह कषायादिकसे रहित नही है उसके
यदि बिना वस्त्र छं. हे मुक्ति होती तो दीक्षाके समय तीर्थकर नग्न क्यों होते ? यदि तीर्थकरके समान महान आत्माओं को भी जिनकल्पी और नग्न होने पर ही सिद्धि की प्राप्ति हुई तो अन्यको बिना निर्ग्रन्थ हुए मुक्ति कैसे हो सकती है। यदि बिना वृक्षपर चढे ही फल तोड़ सकते है तो वृक्ष पर चढ़ने से क्या लाभ? "हस्तसुलभ फले कि तरुः समारुह्यते ?"
जबतक जीव परिग्रहरूपी पिशाचमे रहित नही होता तबतक वह अवश्य ही ससारमे परिभ्रमण करता रहता है ।
जो बाह्य परिचको छोड़कर साथ हुए है उन लोगोंने बाह्य परिग्रहोमेने जिन जिन परियोका त्याग किया है वह क्यो किया है? यदि ममत्व घटानेके लिये किया है तब तो बाह्य वस्त्रादिकपरसे भी ममत्व घटानेके लिये उन्हें छोड़ देना चाहिए।
इस कालमें मोक्ष नही है तो भी इस कालमें उत्पन्न हुए जीव कर्मोकी निर्जरादिक करनेकेलिये या संसारको कम करनेकेलिये उद्यम करते हैं, वे सपको संबर और निर्जराके
लिये करते है-स्वर्गकी इच्छा नहीं।
देशव्रतीसे महाव्रतीके निर्जरा अधिक होती है। अतः महावती बननेका उद्यम करना चाहिये। यदि श्रमण नही बने हो तो भी श्रमण बननेकी भावनासे रहित मत रहो ।
अश्रमण- प्रायोग्य परिग्रहको छोड़े बिना किसीने भी मुक्ति प्राप्त नही की है अतः मुक्त होनेके लिये उसका परित्याग अवश्य करना ही पड़ेगा। 'मरकर तो छोड़ना ही पड़ेगा तो फिर छोड़ कर क्यो नहीं मरता हूं।'
एक परमाणुमात्रपर भी ममत्व रहने पर जब मोक्ष नही हो सकता तब वस्त्रादिक पर ममत्व रखकर कोई मुक्त कैसे हो सकता है ? जहां श्रद्धा निर्भय आत्मा बैठा हुआ है वहा उस बाह्य परिग्रहको आत्मसिद्धिका सापक बनाना कैसे उचित हो सकता है ? एक दिन निध होनेपर ही परमात्माके समान निग्रंथ होना पड़ेगा। बिना परिग्रह छोड़े सिद्ध परमात्मा के समान कोई कैसे हो सकता है ?