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अपभ्रंशभाषाका पासचरिउऔर कविवरदेवचंद
(परमानन्द जैन शास्त्री) भारतीय भाषाओमें अपभ्रंशभाषा भी अपना महत्व- अपभ्रशभाषामे रासा या रासकका इससे पुरातन उल्लेख पूर्ण स्थान रखती है। यह भाषा भी देशविशेषके कारण नागर अभीतक उपलब्ध नही हुआ। श्वेताम्बर जनसाहित्यमें उपनागर, बाचड आदि भेद-प्रभेदोमे बट गई है, फिर भी रासादि साहित्यविषयक अपभ्रंश भाषाकी जो स्फुट रचनाये इसमे जन्मजात माधुर्य है । दूसरे इसकी सबसे बड़ी विशेषता उपलब्ध होती है, वे सब रचनाए विक्रमकी १२वी, १३वी, यह है कि इस भाषामें पदलालित्यकी कमी नही है। रड्ढा, १४वी शताब्दीमे रची गई है। इससे स्पष्ट है कि 'कविदेवदत्त'ढक्का, चौपई, पद्धडिया, दोहा, सोरठा, घत्ता, दुवई, संसर्गिणी का 'अम्बादेवीरास' इन सबसे पूर्वकी रचना है। यह रचना भुजगप्रयात दोधक और गाहा आदि विविध छन्दोमे इसके अभी तक अनुपलब्ध है। अन्वेषक विद्वानोंको शास्त्रभडारोमें साहित्यकी सृष्टि देखी जाती है। इसके सिवाय इसमें सस्कृत इसके खोजनेका यत्न करना चाहिए। भाषाके समान दीर्घपद, समास, और अर्थकाठिन्यादि दोष जैनियोके तेवीसवे तीर्थकर पार्श्वनाथ ऐतिहासिक व्यक्ति नही पाये जाते। इसका पाठ करते ही पाठक उसके रहस्य- हैं। भारतीय पुरातत्वमे पार्श्वनाथकी पुरातन मूर्तियां और का भाव सहज ही अवगत कर लेता है । इसकी सरमता, मन्दिर उपलब्ध होते है। और चौवीसवे तीर्थंकर महावीरके सुगमता और कोमलता पाठकके हृदय पट पर अकित हो वर्तमानतीर्थमे भी भगवान् पार्श्वनाथकी यत्र-तत्र विशेष जाती है। इन्ही सब विशेषताओके कारण अपभ्रश भाषाने पूजा प्रचलित है । आज भी पार्श्वनाथके अनेक विशाल गगनअपना स्थायी स्थान साहित्यिक भाषामे बना लिया है। इस चुम्बी मन्दिर देखे जाते है। मन्दिर और मूर्तियोकी तरह भाषामें जैनकवियोने विपुल साहित्यकी रचना की है। अनेक कवियों और विद्वानोने प्राकृत सस्कृत, अपभ्रश और रासक या रासा साहित्य भी इसीकी देन है, जो विविध हिन्दीभाषाके अनेक काव्यग्रन्थोमे पार्श्वनाथके जीवनछन्दोमे ताल व नृत्यके साथ गाया जाता रहा है। यद्यपि चरितको गुफित किया है। 'रासा' शब्दका उल्लेख भारतीय पुरातन साहित्यम उपलब्ध प्रस्तुत ग्रन्थ भी उन्ही पार्श्वनाथके जीवन-परिचयको होता है। परन्तु अपभ्रशभाषाके 'रासा' साहित्यका सबमे लिये हुए है, जो एक खण्डकाव्य होते हुए भी कविने उसे पुराना उल्लेख महाकवि 'वीर' के 'जबूसामिचरिउ' नामक 'महाकन्वे' जैसे वाक्यद्वारा महाकाव्य' सूचित किया है। काव्यग्रंथमें, जो विक्रम संवत् १०७६ की रचना है, पाया इस ग्रन्थ प्रतिमे तीन पत्र त्रुटित है, ७वां, ७९वां और अन्तिम जाता है। वीर कविके पिता देवदन महाकवि थे। इन्होंने ८१वा । इनमेसे सातवा और ७९वा ये दोनों पत्र अत्यन्त सवत् १०५० या ५५ में 'अम्बादेवीरास' नामका एक ग्रन्थ आवश्यक है। क्योकि इनके अभावमे मूलग्रन्थ ही वंडित लिखा था जो उस समय विविध छन्दोमे गाया जाता था।' हो गया है। ८२वे पत्रपर तो लिपिकारकी प्रशस्तिका थोडामा
अश गया प्रतीत होता है। १. भव्वरिय बंधि विरइय सरसु, गाइज्जइ सतिउ तारु जसु। इस ग्रन्थमे ११ सधिया दी हुई है जिनमें २०२ कडवकनच्चिज्जइ जिण-पय मेवाह, किउ रामउ अबादेवयहि ।। निबद्ध हुए है, जिनमें कविने पार्श्वनाथके चरितकोबड़ी खूबी
-जंम्वामिचरितप्रशस्ति के साथ चित्रित किया है। प्रथमें पहले पाश्र्वनाथतीर्थकरका डा. वासुदेवशरणजी अग्रवालके मतानुसार रामा या चरित दिया हुआ है, और उमके बाद उनके पूर्व भवान्तरोका रासकका पुरातन उल्लेख कवि वाण के 'हर्षचरित' मे पाया कथन संक्षिप्त रूपमें अकित किया है। ग्रंथकी भाषा अपभ्रंश जाता है। रासा वास्तवमें ऊंचे ताल स्वरके साथ भक्तिके होते हुए भी वह हिन्दी भाषाके बहुत कुछ विकामको लिये आवेशमें नाट्यक्रियाके साथ गाई जाने वाली रचना है। हुए है। ग्रन्थमें दोषक छन्दका उल्लेख करते हुए ग्रन्थकारने आचार्य हेमचन्द्रने काव्यानुशासनमे गमकका लक्षण निम्न २. अनेकनर्तकीयोज्यं चित्रताललयान्वितम्-' प्रकार बतलाया है :
आचतुःषष्टियुगलाद्रासकं मसूटणोडते ॥