________________
२१२
अनेकान्त
[बष ११
भगवान् पार्श्वनाथकी उस ध्यानमुद्राको अंकित किया है काव्यको रचना गुंदिज्ज नगरके पार्श्वनाथ मन्दिरमें निवास जिसमें वे एक जंगलमें पाषाणकी सुन्दर शिलापर बैठे करते हुए की है। गुंदिज्जनगर दक्षिण प्रांतमें ही कही पर हुए स्व-स्वरूपमें निमग्न है। इस उद्धरणपरसे पाठक ग्रन्थ- अवस्थित होगा। इसके सम्बन्धमें और कुछ ज्ञात नहीं हो की भाषाका सहज ही अनुमान कर सकते हैं :-
सका। कविवर देवचन्द मूलसंघ देशीगच्छके विद्वान् वासव "तत्य सिलायले थक्कु जिणिदो, संतु महंतु तिलोयहो बंदो। चन्द्रके शिष्य थे। उनकी गुरुपरम्परा निम्न प्रकार है:पंच-महव्वय-उद्दय-कंधो , निम्ममु चत्त-चउन्विहबंधो। श्रीकीर्ति, देवकीर्ति, मौनीदेव, माधवचन्द्र, अभयनन्दी, जीवदयावरु संग-विमुक्को, णं दहलक्खणु धम्मु गुरुक्को। वासवचन्द्र और देवचन्द । ग्रन्थमें रचनाकाल दिया हुआ जम्म-जरा-मरणुझिय दप्पो, बारस भेय तवस्स महप्पो। नहीं है जिससे यह बतलाना कठिन है कि यह ग्रंथ कब बना है मोहतमंच-पयाव-पयंगो , खंतिलया रुहणे गिरि तुंगो। क्योंकि तदविषयक ऐतिहासिक सामग्रीका अभाव है। ग्रंथसंजम-सील-विहूसिय देहो , कम्म-कसाय-हुआसण-मेहो । की यह प्रति सं० १४९८ के दुर्मति नाम संवत्सरके पूष महीनेपुफ्फंधणु बर तोमर धंसो, मोक्ख-महासरि-कीलणहंसो । के कृष्णपक्षमें अलाउद्दीनके राज्यकालमें भट्टारक नरेन्द्रइदियसप्पहं विसहरमतो , अप्पसरूव-समाहि-सरंतो । कीतिके पट्टाधिकारी भट्टारक प्रतापकीतिके समयमें देवगिरि केवलनाण-पयासण-कंखू , घाणपुरम्मि निवेसिय-चक्खू। महादुर्गमें अग्रवाल श्रावक पंडित गांगदेवके पुत्र श्री णिज्जिय सासु पलविय बाहो, निच्चल-देह-विसज्जिय बाहो। पासराजके द्वारा लिखाई गई है। कंचणसेलु जहा थिरचित्तो, दोधकछंद इमो बुह वुत्तो।" प्रशस्तिमें ऊपर जिस गुरुपरम्पराका उल्लेख किया
इसमें बतलाया गया है कि भगवान् पार्श्वनाथ एक गया है, उसका पूरा समर्थन अन्यत्र कहीसे भी प्राप्त नहीं शिलापर ध्यानस्थ बैठे हुए है, वे सन्त, महन्त और त्रिलोकवर्ती हुआ। इस गुरुपरम्परामें अन्तिम नाम वासवचन्द्रका आया जीवोंके द्वारा वन्दनीय है, पंच महावतोके धारक है निर्ममत्व है। अबतक मुझे वासवचन्द्र नामके दो विद्वानोंका पता है, और प्रकृति, प्रदेश, स्थिति अनुभागरूप चार प्रकार- चला है। जिनमें एकका उल्लेख खजराहा के सं० १.११ के बंधसे रहित है। दयाल और संग (परिग्रह) से मुक्त है, वैशाख सुदी ७ सोमवारके दिन उत्कीर्ण किये गए जिननाथ दशलक्षणधर्मके धारक है। जन्म-जरा और मरणके दर्पसे रहित मन्दिरके शिलालेखमे दिया हुआ है, जो वहांके राजा धंगहैं। तपके द्वादश भेदोंके अनुष्ठाता है, मोहरूपी अंधकारके दूर के राज्यकालमे खोदा गया है। करने के लिये सूर्य समान है, क्षमारूपी लताके आरोहणार्थ दूसरे वासवचन्द्रका उल्लेख श्रवणबेलगोलाके शिलालेख वे गिरिके समान उन्नत है। जिनका शरीर संयम और शीलसे नं०५५ में पाया जाता है, जो शक संवत् १०२२ (वि० सं० विभूषित है, जो कर्मरूप कषाय-हुताशनके लिये मेघ है। ११५७) का है। उस लेखके २५वें पद्यमें बतलाया गया है कामदेवके उत्कृष्ट वाणको नष्ट करनेवाले, तथा मोक्षरूप कि वासवचन्द्रमुनीन्द्र स्याद्वाद विद्याके विद्वान् थे कर्कशमहासरोवरमें क्रीड़ा करनेवाले हंस है। इंद्रियरूपी विषधर तर्क करनेमें उनकी बुद्धि चलती थी। उन्होंने चालुक्य राजासाँके रोकनेके लिये मंत्र है, आत्मसमाधिमें चलने की राजधानीमे 'बालसरस्वति' को उपाधि प्राप्त की थी। वाले है। केवलज्ञानको प्रकाशित करनेवाले सूर्य है, नासान- यदि इन दोनों वासवचन्द्रोंमेंसे कोई एक वासवचन्द्र उक्त दृष्टि हैं, श्वासको जीतनेवाले हैं, जिनके बाहु लम्बायमान देवचन्द्रके गुरु रहे हो तो देवचन्द्रका समय विक्रमकी ११वी हैं। और व्याधियोंसे रहित जिनका निश्चल शरीर है। या १२वी शताब्दी हो सकता है। जो सुमेरुपर्वतके समान स्थिरचित्त हैं। इस समुल्लेख परसे
वीर-सेवा-मन्दिर भगवान पार्श्वनाथकी अटल ध्यान-समाधिका जो कर्मा- १-See Epigraphica Indica Vol. I वरणकी नाशक है, परिज्ञान हो जाता है।
Page 136. इस ग्रन्थके रचयिता कविवर देवचन्द है। जिन्होंने २-वासवचन्द्रमुनीन्द्रो रुन्द्रस्याद्वादतर्क-कर्कश-विषण :। इस ग्रन्थको अन्तिम प्रशस्तिमें अपनी गुरुपरम्परा इस- चालुक्यकटकमध्येबालसरस्वतिरिति प्रसिद्धि प्राप्तः।२५॥ प्रकार बतलाई है, इससे ज्ञात होता है कि कविने इस महा
-श्रवणबेलगोलाशिलालेख